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हैं किन्तु पिछले अध्याय में हमने सद्गुणों का जो वर्गीकरण किया है उससे यह कथन तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता है और हम यह कह सकते हैं कि जैन आचार व्यक्ति और सामाजिक विकास दोनों दृष्टियाँ रखता है। यह व्यक्ति को सामाजिक प्राणी मानता है क्योंकि व्यक्ति की समाज पर बौद्धिक, नैतिक और भौतिक लाभ के लिए आश्रितता अखंडनीय
साधु भी अपनी सामाजिक निर्भरता की मान्यता का खंडन करने में असमर्थ है। यद्यपि साधु-अवस्था में निर्भरता की धारणा में काफी परिवर्तन होता है। वास्तविक साधुता कृतघ्नता का कार्य नहीं है किन्तु सर्वोच्च कृतज्ञता का कार्य है अर्थात् साधु-जीवन समाज को चाँदी के सिक्कों के बदले सोने के सिक्के लौटाता है। साधु अपने संयम के कारण पुण्य का संग्रह करता है जो किसी-न-किसी रूप में सामाजिक ऋण है। यह सामाजिक ऋण निरन्तर जन्मों के लिए उत्तरदायी है, जब तक पूर्ण ऋण नहीं चुक जाता है। उसकी समाज पर यह निर्भरता सम्मानजनक है। - तीर्थंकर या दिव्य मनुष्य जो सामाजिक निर्भरता से परे चले गये हैं, वे भी दुःखी मानवता को उपदेश और आध्यात्मिक मार्गदर्शन देकर सामाजिक उपकार करते हैं, यह उपकार भविष्य के जन्म को उत्पन्न नहीं करता है। इस प्रकार का सामाजिक उपकार अपूर्व होता है। इसके समान कोई दूसरा नहीं है। - इस प्रकार हम देखते हैं कि सामाजिक निर्भरता शनैः-शनैः कम हो जाती है और पूर्ण स्वतन्त्रता में परिवर्तित हो जाती है। ऐसे स्तर पर ही हम कहने में समर्थ हैं कि व्यक्ति सामाजिक ऋण से पूर्णतया मुक्त है। इसके परिणामस्वरूप जैनधर्म का कहना है कि व्यक्ति सामाजिक ढाँचे
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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