SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चारित्र में अपने आपको स्थापित करता है और कई प्रकार के भोजन और परिग्रह को त्याग देता है। 234 वह सब परीषह सहता है और सारे प्रलोभनों को निडरतापूर्वक रोकता है और जंगली जानवरों द्वारा यदि उसका शरीर अशोभनीय स्थानों पर फेंक दिया गया है तो भी वह विचलित नहीं होता है।235 वह अपने आपको ध्यान में लगाता है, निद्रा को टालता है और आवश्यक नियमों की अवहेलना नहीं करता है।236 संक्षेप में उसका सारा समय ध्यान में, स्वाध्याय में और शुभ चिंतन में जाता है। उसको दूसरे मुनियों और आचार्य की सेवा की आवश्यकता नहीं होती है। भक्तप्रतिज्ञा-मरण में मुनि अपनी सेवा करता है और दूसरों से करवाता है किन्तु इंगिनी-मरण में वह दूसरों की सेवा अस्वीकार कर देता है लेकिन प्रायोपगमन-मरण में न तो वह अपनी सेवा करता है और न दूसरों की सेवा स्वीकार करता है। 237 (iii) प्रायोपगमन-मरण प्रायोपगमन-मरण में मुनि को मल-विसर्जन की आवश्यकता नहीं होती है।238 वह अपने शरीर को एक ही स्थिति में सदैव रखता है।39 वह घास का बिछौना काम में नहीं लेता है। 234. भगवती आराधना, 2038, 2039 235. भगवती आराधना, 2047-2049 236. भगवती आराधना, 2053-2055 237. भगवती आराधना, 2064 गोम्मटसार कर्मकाण्ड, 61 238. भगवती आराधना, 2065 239. भगवती आराधना, 2068 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (59) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy