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________________ जीवों के कर्मों के फल पर चिंतन करना विपाकविचय धर्मध्यान है।209 (4) संस्थानविचय (लोक के स्वभाव का चिंतन)- लोक के स्वभाव, विस्तार और उसके घटकों की विभिन्नता पर चिन्तन करना संस्थानविचय धर्मध्यान है।210 इस धर्मध्यान से साधक लोक में अपनी स्थिति अनुभव कर लेता है। कार्तिकेय के द्वारा धर्मध्यान की पारम्परिक व्याख्या में नवीन दृष्टि जोड़ी गयी जिसके अनुसार सब प्रकार के विचारों को छोड़कर आत्मा पर ध्यान करना धर्मध्यान है।211 शुक्लध्यान शुक्लध्यान का फल है- मन का मोहरहित होना और केवलज्ञान प्राप्त करके आत्मप्रदेशों को परिस्पन्दन-रहित करना। इसके चार भेद हैं-212 पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति। प्रथम दो शुक्लध्यान केवलज्ञान होने तक होते हैं अर्थात् जीवनमुक्त होने तक होते हैं और अंतिम दो केवली (सयोगकेवली और अयोगकेवली) के होते हैं।213 इन ध्यानों का संबंध योगों से है, प्रथम का संबंध तीन योग से, द्वितीय का संबंध एक योग से, तृतीय का संबंध काय योग से और चतुर्थ का संबंध अयोग से होता है। तीन योगवाले के पृथक्त्ववितर्क ध्यान होता है, तीन योगों में से एक योगवाले के एकत्ववितर्क ध्यान होता है, काय योगवाले के सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान होता है और अयोगी के व्युपरतक्रियानिवर्ति ध्यान होता है। 214 209. सर्वार्थसिद्धि, 9/36 मूलाचार, 401 210. सर्वार्थसिद्धि, 9/36 211. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 480 212. तत्त्वार्थसूत्र, 9/39 213. ज्ञानार्णव, 52/7, 8 214. सर्वार्थसिद्धि, 9/40 (54) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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