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क्योंकि जिनदेव अन्यथावादी नहीं होते। इस प्रकार गहन पदार्थों के श्रद्धान द्वारा अर्थ का अवधारण करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है।"204 इसके अतिरिक्त जो स्वयं पदार्थों के रहस्य को जानता है और दूसरों के प्रति उसका प्रतिपादन करना चाहता है इसलिए स्व सिद्धान्त के समर्थन करने के लिए जो तर्क, नय और प्रमाण का सहारा लिया जाता है वह सर्वज्ञ की आज्ञा को प्रकाशित करनेवाला होने से आज्ञाविचय धर्मध्यान कहा जाता है।205 इस धर्मध्यान का उद्देश्य है वस्तुओं के तात्त्विक स्वभाव के संबंध में बौद्धिक स्पष्टता का होना। (2) अपायविचय (विकारों के विनाश का चिंतन)- मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र206 से उत्पन्न दुःखों से संसारी जीवों को छुड़ाने के लिए उपयुक्त साधनों का चिंतन करना207 अपायविचय धर्मध्यान है। “मिथ्यादृष्टि जीव जन्मांध पुरुष के समान सर्वज्ञ-प्रणीत मार्ग से विमुख होते हैं, उन्हें सन्मार्ग का ज्ञान न होने से वे मोक्षार्थी पुरुषों को दूर से ही त्याग देते हैंइस प्रकार सन्मार्ग के उपाय का चिंतन करना अपायविचय धर्मध्यान है।” इसके अतिरिक्त ज्ञानार्णव के अनुसार साधक को यह सोचना चाहिये कि “मैं कौन हूँ? कर्मों का आस्रव और बंध क्यों होता है? कर्म कैसे नष्ट किये जा सकते हैं? मोक्ष क्या है? मोक्षप्राप्ति पर आत्मा का स्वभाव क्या होता है?"208 यदि आज्ञाविचय सत्य में स्थापित करता है तो अपायविचय सत्य की अनुभूति के लिए विकारों के विनाश पर चिंतन करता है। (3) विपाकविचय (कर्मों के स्वरूप की विचारणा)204. सर्वार्थसिद्धि, 9/36 205. सर्वार्थसिद्धि, 9/36 206. सर्वार्थसिद्धि, 9/36 207. मूलाचार, 400 208. ज्ञानार्णव, 34/11
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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