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दिखाता है, चोरी का शिक्षण देता है वह चौर्यानन्द रौद्रध्यान कहा जाता है।196 (4) विषयानन्द- अपने परिग्रह और इन्द्रिय सुखों को बचाने का प्रयत्न करना विषयानन्द रौद्रध्यान है।'97 यह ध्यान अणुव्रतधारियों में कुछ हद तक होता है।198 मुनि के जीवन में यह ध्यान बिलकुल भी नहीं होता है।199 यह ध्यान बिना शिक्षण के ही उत्पन्न होता है और यह तीव्र कषाय का परिणाम है।200 प्रशस्तध्यान की पूर्व आवश्यकताएँ
प्रशस्तध्यान मोक्ष के लिए सहायक है। सामान्यरूप से साधक के लिए ध्यान की पूर्व आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं- मोक्ष की उत्कट इच्छा, सांसारिक वस्तुओं में अनासक्ति, शान्त और निराकुल चित्त, आत्मसंयम, स्थिरता, इन्द्रियसंयम, धैर्य और सहनशीलता। इसके अतिरिक्त साधक को समय, स्थान, और मानसिक संतुलन की प्राप्ति का ध्यान रखना चाहिए। इसके साथ ही मैत्री (सभी प्राणियों के प्रति मित्रता), प्रमोद (दूसरों के गुणों की प्रशंसा), करुणा (अनुकम्पा और सहानुभूति) और माध्यस्थ (उच्छृखल के प्रति उदासीनता) भावों का अभ्यास करना चाहिए। साधक को उन स्थानों को छोड़ना चाहिए जहाँ
. 196. ज्ञानार्णव, 26/24 . कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 474
197. ज्ञानार्णव, 21/29 ___ . . कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 474 . 198. तत्त्वार्थसूत्र, 9/35
199. सर्वार्थसिद्धि, 9/35 200. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 469
ज्ञानार्णव, 26/43 राजवार्तिक, 9/35/4
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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