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दूषित प्रवृत्तियों के कारण स्वाभाविक रूप से विद्यमान होता है।193 यह ध्यान मिथ्यादृष्टि में, सम्यग्दृष्टि में और अणुव्रतधारी व्यक्तियों में उपस्थित रहता है। जैसे गृहस्थ एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से बच नहीं सकता उसी प्रकार वह आर्तध्यान को भी नहीं हटा सकता। निःसन्देह वह इसको कम से कम कर सकता है किन्तु पूर्णतया दूर नहीं कर सकता
रौद्रध्यान
रौद्रध्यान भी चार प्रकार का होता है- हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द और विषयानन्द। (1) हिंसानन्द- प्राणियों को मारने में हर्ष मनाना, दूसरों की बुराई सोचना, दूसरों के गुणों व संपत्ति के प्रति जलन अनुभव करना, हिंसा के उपकरण एकत्रित करना, निर्दयी मनुष्यों के प्रति दया दिखाना, बदले की भावना रखना, युद्ध में हार व जीत के विषय में सोचना - ये सब हिंसानन्द रौद्रध्यान के अन्तर्गत आते हैं।194 (2) मृषानन्द- व्यक्ति जिसका मन असत्य से भरा हुआ है, जो जगत को दुष्ट सिद्धान्तों के प्रचार के द्वारा दुःखों में फँसाना चाहता है और अपने सुख के लिए विकृत साहित्य लिखता है और जो छल-कपट से धन इकट्ठा करता है, जो निर्दोष लोगों में दोष दिखाने की योजना बनाता है जिससे राजा उसे दण्ड दे सके, जो सरल व अज्ञानी लोगों को कपटपूर्वक भाषा से धोखा देने में सुख मनाता है वह मृषानन्द रौद्रध्यान से ग्रसित होता है।195 (3) चौर्यानन्द- जो चोरी में दक्षता और उत्साह 193. ज्ञानार्णव, 25/41 194. ज्ञानार्णव, 26/4, 9, 10, 11, 13, 15
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 473 195. ज्ञानार्णव, 26/16, 17, 18, 20, 22
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 473
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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