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द्वारा उत्पन्न किये जा सकते हैं किन्तु तप साधक के दृढ़ निश्चय को दर्शाते हैं। फिर, यदि परीषहों का मूल्य धैर्यपूर्वक सहने में है तो तपों का मूल्य उनका पालन करने में है। (3) जो परीषह आध्यात्मिक जीवन में बाधा के रूप में होते हैं, वे साधक के जीवन के अस्थायी पक्ष हैं जब कि तप दुःखी जीवन से मुक्ति के लिए प्रस्तावित अनुशासन के रूप में अनिवार्य होते हैं। (4) तपों का करना परीषहों को समतापूर्वक सहने के लिए शक्ति प्रदान करना है। तप का स्वरूप और प्रकार
तप का अर्थ है- इच्छाओं का निरोध। षट्खण्डागम का कथन है- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी तीन रत्नों की प्राप्ति के लिए इच्छाओं का उन्मूलन तप कहा जाता है।150 इस प्रकार जैन दृष्टिकोण से आत्मा की स्वतन्त्रता, शान्ति और साम्य की प्राप्ति के लिए सभी इच्छाएँ जो दुःखों का मूल हैं उनका निष्कासन न केवल मुख्य है बल्कि सर्वोपरि है। यह जैन उपदेशों का आधार व शिखर दोनों है। अंतरंग यात्रा की सर्वोच्चता के होते हुए भी जैनधर्म बाह्य शारीरिक तपों की उपेक्षा नहीं करता। जैनधर्म में दो प्रकार के तप उल्लिखित हैंअर्थात् बाह्य तप और अंतरंग तप।'51 पूर्ववर्ती शारीरिक और इन्द्रियगोचर त्याग की मुख्यता पर जोर देता है जब कि परवर्ती मन के अंतरंग नियंत्रण
150. षट्खण्डागम, भाग-13, पृष्ठ 55
अनगार धर्मामृत, 8/2 151. उत्तराध्ययन, 30/7
सर्वार्थसिद्धि, 9/18 षट्खण्डागम, भाग-13, पृष्ठ 54 अनगार धर्मामृत, 7/6
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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