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है।45 क्षुधा-पिपासा आदि बाईस प्रकार के परीषहों को सहते हुए जो मुनि सम्यक् मार्ग से च्युत नहीं होता वह परीषहों को जीतनेवाला कहा जाता है।146 बाईस परीषह इस प्रकार हैं-147 (1) क्षुधा, (2) तृषा, (3) शीत, (4) उष्ण, (5) दंशमशक, (6) नग्नता, (7) अरति, (8) स्त्री (9) चर्या, (10) निषद्या, (11) शय्या, (12) आक्रोश, (13) वध, (14) याचना, (15) अलाभ, (16) रोग, (17) तृण-स्पर्श, (18) मल, (19) सत्कार-पुरस्कार, (20) प्रज्ञा, (21) अज्ञान और (22) अदर्शन। अब हम प्रत्येक की व्याख्या करेंगे। 48
क्षुधा और तृषा- यह संभव है कि मुनि निर्दोष भोजन और पानी न प्राप्त कर सके तो भी यदि वह क्षुधा और तृषा के दुःख से व्याकुल नहीं होता और अपना स्वाध्याय और ध्यान बराबर करता रहता है तो वह क्षुधा और तृषा परीषह को जीतनेवाला कहा जाता है। शीत और उष्ण- मुनि का जीवन पक्षी के आवास के समान अनिश्चित होता है; वह जंगल में ठहरता है या पर्वत के शिखर पर ठहरता है, वह शीत वायु और उष्ण वायु से विचलित नहीं होता और अपने आध्यात्मिक उद्देश्य में लगा रहता है तो वह शीत और उष्ण परीषह को जीतनेवाला कहा जाता है। दंशमशक- जो मुनि मक्खी, मच्छर, साँप, बिच्छु आदि के कारण परेशान नहीं होता और उनको दूर हटाने का प्रयास नहीं करता किन्तु आध्यात्मिक विकास के संकल्प में लगा रहता है वह दंशमशक 145. तत्त्वार्थसूत्र, 9/8 146. उत्तराध्ययन, 2 147. तत्त्वार्थसूत्र, 9/9
उत्तराध्ययन, 2 148. सर्वार्थसिद्धि, 9/9
उत्तराध्ययन, 2
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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