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________________ को पालनेवाला कहा जाता है।109 ऐसी उदात्त क्रिया आत्मा की स्वतंत्रता को दर्शाती है। 'आवश्यक' पद का यह अर्थ निश्चय या लोकातीत दृष्टिकोण से है किन्तु जब आत्मा उत्कृष्ट ऊँचाई पर चढ़ने में अपने आपको असमर्थ पाती है तो यह शुभ कर्मों में उतर जाती है और उस दृष्टिकोण से परम्परानुसार ‘आवश्यक' छह प्रकार के माने गये हैं, अर्थात् (1) सामायिक, (2) स्तुति, (3) वंदना, (4) प्रतिक्रमण, (5) प्रत्याख्यान और (6) कायोत्सर्ग।110 कुन्दकुन्द के अनुसार आवश्यकों की गणना इस प्रकार की गयी है - प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, कायोत्सर्ग, सामायिक और परमभक्ति। इसका पारम्परिक गणना से थोड़ा ही भेद है। आलोचना प्रतिक्रमण के अन्तर्गत रखी जा सकती है और परमभक्ति स्तुति और वंदना में सम्मिलित की जा सकती है। कुन्दकुन्द परमभक्ति को दो भागों में विभक्त करते हैं- निर्वृत्तिभक्ति और योगभक्ति जिसमें स्तुति और वंदना का स्वरूप देखा जा सकता है। कुन्दकुन्द या तो पारम्परिक गणना को स्वीकार करना नहीं चाहते हैं क्योंकि वे निश्चयनय के दृष्टिकोण से विचार कर रहे हैं या उन्होंने दोनों प्रकार की गणना में कोई भेद नहीं पाया या वे किसी पूर्व परम्परा का उल्लेख कर रहे हैं।11 हम कह सकते हैं कि परवर्ती विचारकों ने षट् आवश्यक की पारम्परिक गणना 109. नियमसार, 141, 142, 143, 144, 145, 146, 147 मूलाचार, 515 110. मूलाचार, 516 उत्तराध्ययन, 29/8, 9, 10, 11, 12, 13 111. प्रवचनसार, भूमिका, पृष्ठ 52 Ethical Doctrines in Jainism Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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