SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐसा भोजन करता है - जो भोजन हितकारी हो, भक्तिपूर्वक दिया गया हो, शुद्ध हो, अपने लिए तैयार न किया गया हो और न अपने द्वारा अनुमोदन किया गया हो।" जो मुनि दोषमुक्त भोजन करता है, पापरहित परिग्रह को उचित रूप से सँभालता है, बैठने और सोने के स्थान को साफ करता है वह एषणासमिति का पालन करनेवाला होता है। इनमें असावधानी रखने से मुनिपद का अपमान होता है।” मुनि बाह्य रूप से भोजन लेते हुए भी अनासक्त रहता है। मुनि शक्ति बढ़ाने के लिए, आयु बढ़ाने के लिए, स्वाद को संतुष्ट करने के लिए, स्वस्थ व आकर्षक व्यक्तित्व प्राप्त करने के लिए भोजन नहीं करता किन्तु भोजन करने का पवित्र उद्देश्य होता है- निरन्तर स्वाध्याय, आत्म-नियंत्रण और बाधा - रहित निरन्तर ध्यान ।" वह भोजन करता है- भूख मिटाने के लिए, अन्य मुनियों की सेवा करने के लिए, प्राण और आत्मसंयम की रक्षा के लिए और षट् आवश्यक का पालन करने के लिए | 9 वह आहार-विहार में नियमनिष्ठ होता है क्योंकि वह 99 100 अनासक्त होता है और इसलोक और परलोक के प्रति अनासक्तता का दृष्टिकोण अपनाता है। मुनि शुद्धात्मा की अनुभूति के प्रयास के लिए भोजन करता है जैसे एक दीपक में तेल वस्तुओं को स्पष्टरूप से देखने 96. नियमसार, 63 97. मूलाचार, 318, 916 भगवती आराधना, 1197 (26) उत्तराध्ययन, 24/11 तत्त्वार्थसार, 6/9 98. मूलाचार, 481 99. मूलाचार, 479 100. प्रवचनसार, 3/26 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy