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इस प्रकार शुद्धोपयोग अर्थात् रहस्यवाद का जैनाचार के साथ बड़ा ही गहरा सम्बन्ध सिद्ध होता है, क्योंकि समस्त जैनाचार की अन्तिम परिणति अनिवार्य रूप से रहस्यवाद/शुद्धोपयोग में होना आवश्यक है। उसके बिना वह अपूर्ण ही रहा माना जाएगा।
इसे हम इसप्रकार भी कह सकते हैं कि सम्पूर्ण आचार का . पालन वस्तुत: रहस्यात्मक जीवन (शुद्धोपयोग) की प्राप्ति के लिए ही किया जाता है, उसका अन्य कोई प्रयोजन नहीं होता। आचार साधन है और रहस्यवाद साध्या साधन तभी साधन है जब वह साध्य की प्राप्ति कराए और साध्य भी इसीलिए साध्य है क्योंकि वह साधनों द्वारा प्राप्त किया जाता है।
निष्कर्ष यह हुआ कि जैनाचार और रहस्यवाद का पारस्परिक घनिष्ठ सम्बन्ध है, इनको एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकतान तो समझने के स्तर पर ही और न पालने के स्तर पर ही।
___ डॉ. कमलचन्द सोगाणी की प्रस्तुत कृति इसीलिए स्तुत्य है क्योंकि इसमें जैनाचार के इस महत्त्वपूर्ण पक्ष को पद-पद पर बड़ी ही सावधानी के साथ स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। जैनाचारशास्त्र के अध्येताओं से यह पक्ष प्रायः छूट जाता है। डॉ. सोगाणी जी की इस कृति से हम सभी को आचारशास्त्र एवं रहस्यवाद के पारस्परिक सम्बन्ध को समझने की प्रेरणा लेनी चाहिए।
- वीरसागर जैन
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