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________________ अरिहंतों के जीवन में केवलज्ञान उत्पन्न हो चुका है जिसके कारण वे बिना किसी सहायता के पूर्णरूप से, एकसाथ सभी द्रव्यों को जान लेते हैं। इसका विरोध सीमित इन्द्रिय ज्ञान से है जो वस्तुओं को अपूर्णरूप से, क्रम से और बुद्धि के सहयोग से जानता है। यह कहना आत्मविरोधी नहीं होगा कि केवलज्ञानी सर्वव्यापक होता है और सारी वस्तुएँ उनके अन्दर होती हैं क्योंकि अरिहंत ज्ञान के मूर्त रूप हैं और सारे विषय ज्ञान के विषय हैं।204 केवलज्ञानी बाहरी वस्तुओं205 को बदलता नहीं है किन्तु उनको दृष्टाभाव से देखता है जैसे आँखें वस्तुओं को देखती हैं।206 योगीन्दु इसी तरह कहते हैं कि विश्व परमात्मा में स्थित है और परमात्मा विश्व में किन्तु वह विश्व नहीं है।207 केवलज्ञान स्वतंत्र है, पूर्ण है, पवित्र है, अन्तर्दृष्ट्यात्मक है और . विश्व की अनन्त वस्तुओं तक फैला हुआ है, उसका आनन्द से तादात्म्य किया जा सकता है, वहाँ अशान्ति नहीं है क्योंकि वह अशान्ति ऐसे ज्ञान से उत्पन्न होती है जो पराधीन है, अपूर्ण है, अपवित्र है, परोक्ष है 208 और सीमित वस्तुओं तक फैली हुई है। दूसरे शब्दों में, अरिहंत की चेतना सर्वशक्तिमान और अन्तर्दृष्ट्यात्मक ही नहीं है किन्तु आनन्दपूर्ण भी है। अरिहंत अपूर्व आनन्द अनुभव करते हैं जो आत्मा के अंतरंग से उत्पन्न होता है जो अतीन्द्रिय है, अपूर्व है, अनन्त है और अविनाशी है।209 204. प्रवचनसार, 1/26 205. प्रवचनसार, 1/32 206. प्रवचनसार, 1/29 207. परमात्मप्रकाश, 1/41 208. प्रवचनसार, 1/59 अमृतचन्द्र की टीका सहित 209. प्रवचनसार, 1/13 (108) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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