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आत्मा नीचे गिर जाता है, अतः अंधकार का आक्रमण अत्यन्त दुःखदायी होता है।
(6) लोकातीत जीवन या ( क) सयोगकेवली गुणस्थान ( ख ) अयोगकेवली गुणस्थान
सुप्त आत्मा जाग्रत होने के पश्चात् ध्यान की सीढ़ियों से चढ़ता हुआ उदात्त लक्ष्य की ओर पहुँचता है। प्रसुप्त आत्मा जो बाहरी वस्तुओं के त्याग की ओर प्रवृत्त है और जो जाग्रत होने पर अंतरंग अशुभ इच्छाओं को अस्वीकार करने तथा शुभ भावों को स्वीकार करने में व्यस्त है, लोकातीत अवस्था में रूपान्तरण के कारण न तो किसी वस्तु को त्यागता है न ग्रहण करता है किन्तु शाश्वत शान्ति में ठहर जाता है। 184 आत्मा (सुप्त ) जो मिथ्यात्व और असंयम के द्वारा प्रभावित था जाग्रत होने पर उनके द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता है।
वह वीतराग वाणी और कायिक क्रियाओं से सम्पन्न हो जाता है। ये आत्मा को रहस्यवादी अनुभव से वंचित नहीं कर सकती हैं। क्रिया लोकातीत अनुभव से असंगत नहीं होती है। यह जीवनमुक्त अवस्था कहलाती है और लोक में दिव्य जीवन का उदाहरण है। शुभ भाव जो अस्थायी शरण हैं वे अब पराजित हो गये हैं और शुद्ध भाव जो स्थायी निवास हैं, उत्पन्न हो गये हैं । अन्तरात्मा परमात्मा में रूपान्तरित हो गई है। अन्तःशक्ति वास्तविकता में बदल गई है। श्रद्धा और जीवन में जो भेद था वह समाप्त हो गया है। यह लोकातीत जीवन है. और अतिमानसिक अवस्था है। यह आत्मा की विजय है, रहस्यवाद का फूल है, पूर्णता है जिसकी प्राप्ति के लिए रहस्यवादी ने आध्यात्मिक तीर्थयात्रा के प्रारंभ से ही अपने आपको लगाया है। यह सयोगकेवली
184. समाधिशतक, 47
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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