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________________ (4) ज्योतिपूर्ण अवस्था या (क) सातिशय अप्रमत्त (ख) अपूर्वकरण (ग) अनिवृत्तिकरण (घ) सूक्ष्म साम्पराय (ङ) उपशान्त कषाय (च) क्षीणकषाय गुणस्थान ___ सातवें गुणस्थान का दूसरा भाग और शेष गुणस्थान बारहवें तक ध्यान की या ज्योतिपूर्ण और हर्षोल्लास पूर्ण अवस्था है। श्रेणियाँ गहरे . ध्यान के माध्यम से चढ़ी जाती हैं। रहस्यवादी ध्यान के द्वारा उच्च मार्ग पर बढ़ता है और अब उसने आध्यात्मिक मनोयोग की तथा आत्मा में अपने को निमज्जन करने की शक्ति प्राप्त कर ली है। वह गहन रूप से अन्तर्मुखी हो जाता है। सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानवाला रहस्यवादी शुद्ध आत्मा की अवस्थाओं का अनुभव करता है और वह एक अन्तर्मुहूर्त के बाद आठवें गुणस्थान अर्थात् अपूर्वकरण गुणस्थान में आ जाता है और ऐसे अनुभव प्राप्त करता है जो कभी पूर्व में प्राप्त नहीं किये गये; जो आत्मा के इतिहास में अपूर्व हैं। वह एक अन्तर्मुहूर्त तक इस गुणस्थान में ठहरता है।74 और यहाँ वह चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम करता है या क्षय करता है 175 और नवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में पहुँच जाता है जो गहन पवित्रता की अवस्था है। दसवाँ गुणस्थान जो सूक्ष्मसाम्पराय कहलाता है वहाँ केवल सूक्ष्म लोभ बचता है।176 जिस आत्मा ने उपशम श्रेणी का चुनाव किया है वह लोभ का भी उपशम ग्यारहवें गुणस्थान में कर देता है। वह उपशान्तकषाय गुणस्थान कहा जाता है। यह गुणस्थान प्रथम प्रकार के शुक्ल ध्यान से प्राप्त किया जाता 173. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 49, 50, 51 174. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 53 175. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 54 176. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 59, 60 (100) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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