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________________ मुनि दोनों के लिए उपयोगी हैं। हम सरसरी तौर पर कह सकते हैं कि ज्ञानयोग की पूर्णता केवलज्ञान है, कर्मयोग की पूर्णता आत्मा में स्थिरता है और भक्तियोग की पूर्णता आनन्दानुभव की द्योतक है। उच्चारोहण से पूर्व की प्रक्रिया शुद्धीकरण की प्रक्रिया का वर्णन करने के पश्चात् अब हम विकास के अगले गुणस्थान का वर्णन करेंगे। कषाय के अति मन्द हो जाने के कारण आत्मा में प्रमाद उत्पन्न नहीं होता है और आत्मा सातवें गुणस्थान में पहुँच जाता है जो अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहा जाता है।11 यह गुणस्थान दो प्रकार का होता है अर्थात् स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त। आत्मा जिसने पूर्णतया प्रमाद नष्ट कर दिया है और जो बौद्धिक ज्ञान और धर्मध्यान में लीन है किन्तु उच्च गुणस्थानों की ओर उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी के माध्यम से नहीं मुड़ता तब तक वह स्वस्थान अप्रमत्त या निरतिशय अप्रमत्त कहलाता है।172 जब वह उच्च गुणस्थानों की ओर मुड़ता है तो वह सातिशय अप्रमत्त कहलाता है। वह छठे और सातवें गुणस्थान में हजारों बार आता-जाता है और जब वह स्थिरता प्राप्त कर लेता है तो प्रयत्नपूर्वक अपने आपको चारित्रमोहनीय - कर्म का उपशम या क्षय करने के लिए तैयार करता है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि दोनों प्रकार की श्रेणियों का उपयोग करने के लिए समर्थ होता है जब कि उपशम सम्यग्दृष्टि केवल उपशम श्रेणी के माध्यम से ही आगे चढ़ता है। 171. गोम्मटसार जीवकाण्ड, चन्द्रिका टीका 45 172. गोम्मटसार जीवकाण्ड, चन्द्रिका टीका 46 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (99) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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