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________________ (Majestic) इस अर्थ में होता है कि उसके अनन्त गुण हमारे द्वारा निरूपित नहीं किये जा सकते हैं।132 तुच्छता की भावना से ग्रसित होते हुए और भक्ति के विषय को पूर्णतया लोकभिन्न मानते हुए भी भक्त भक्ति के वशीभूत अर्हत् और सिद्ध की स्तुति के लिए प्रवृत्त होता है हिरणी की तरह, जो प्रेम के वशीभूत अपने बच्चे को शेर के मुख से बचाने की ओर प्रवृत्त है या उस कोयल की तरह जो बसन्त ऋतु में आम्र-मंजरी उपस्थित होने के कारण गाती है। इससे ज्ञात होता है कि भक्ति के विषय (Object) में एक 'चित्ताकर्षण का तत्त्व'134 (Element of fascination) होता है। भक्ति का विषय अनन्तता के कारण भयभीत करता है फिर भी यह 'चित्ताकर्षक' होता है और भक्त को आनन्द में निमग्न कर देता है।135 इसका परिणाम यह है कि उसकी वाणी परमात्मा के गुणगान में लग जाती है।136 भक्त यह अनुभव करता है कि चूंकि जगत की सारी वस्तुएँ उसको आध्यात्मिक शांति देने में असमर्थ हैं इसलिए वह अर्हत् और सिद्ध को अपने आपको समर्पित कर देता है जिससे दुःखपूर्ण आवागमनात्मक अस्तित्व समाप्त हो जाय। भक्त दिव्य चेतना से इतना आकर्षित हो जाता है कि वह उसको अपने हृदय में स्थापित करने की इच्छा प्रकट करता है।137 132. युक्त्यनुशासन, 2 . . भक्तामर स्तोत्र, 5 कल्याणमंदिर स्तोत्र, 6 133. भक्तामर स्तोत्र, 5, 6 134. Idea of the Holy , P.31 135. स्वयंभू स्तोत्र, 80 136. सामायिकपाठ, 4 137. कल्याणमंदिर स्तोत्र, 10 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (93) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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