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भक्ति का स्वरूप
अब हम जैनधर्म के अनुसार भक्ति के स्वरूप को समझेंगे । दिव्यत्व प्राप्त आत्माओं के प्रति या जो दिव्य अनुभूति के मार्ग पर काफी आगे बढ़ चुके हैं उनके प्रति उदात्त अनुराग भक्ति है । 1 24 भक्त भक्ति के विषय अर्हत् और सिद्ध से परिचित है। भक्त अर्हत् और सिद्ध के सामने जब होता है तो वह अपने आपको निर्लज्ज, 125 अज्ञानी, 126. बालक के समान'27 और उल्लू की तरह दुराग्रही 128 आदि अनुभव करता है। यह एक प्रकार की धार्मिक नम्रता है, आत्महीनता है और आत्मावमूल्यन है और 'तुच्छ जीवत्व' 129 की चेतना है। यह उनके सामने जो लोकातीत हैं अपने आपको तुच्छ मानने की गंभीर मानसिक प्रतिक्रिया है, कोई बौद्धिक व्याख्या नहीं है किन्तु अपने भावों को उचित प्रकार से व्यक्त करने का प्रयास है।
भक्त-चेतना का विषय अनुपम 1 30 होने के अर्थ में पूर्णतया ‘लोकभिन्न' (Wholly other) है। यह पूर्णतया उन सब चीजों से मूलभूत रूप से अन्य है जो विचारी जा सकती हैं। भक्ति का विषय 'तेजस्वी' 131
124. सर्वार्थसिद्धि, 6/24
125. भक्तामर स्तोत्र, 3
126. स्वयंभू स्तोत्र, 15
127. स्वयंभू स्तोत्र, 30
128. कल्याणमंदिर स्तोत्र, 3
129. Idea of the Holy P.21
130. युक्त्यनुशासन, 4
षट्खण्डागम, भाग - 1, 1
131. Idea of the Holy, P.19, 20
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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