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________________ मुनि की विशेषताएँ पूर्व अध्याय अर्थात् 'मुनि का आचार' नामक अध्याय में मुनि की विशेषताएँ बतायी जा चुकी हैं। मूलाचार मुनि के दृष्टिकोण को अति उत्तम तरीके से सार रूप में प्रस्तुत करता है। उसके अनुसार मुनि भिक्षा से भोजन प्राप्त करें, वन में रहें, अल्प भोजन करें, अत्यधिक बोलने को त्यागें, निद्रा को जीतें, परीषहों को सहें, सामाजिक जीवन से दूर रहें, सभी प्राणियों से मैत्री करें, अनासक्त रहें, ध्यान में अपने आपको लगायें, आध्यात्मिक विकास में रत रहें और अंत में कषायों से, परिग्रह से, संबंधियों से - इन सबसे दूर रहें। 103 इसके अतिरिक्त मुनि दस धर्मों का पालन करें 104 अर्थात् ( 1 ) क्षमा- मनुष्यों, देवताओं और तिर्यंचों के प्रति क्षमा भाव रखें यद्यपि उन्होंने उसको बहुत कष्ट दिया है तो भी मुनि सबको क्षमा करें और क्रोध नहीं करें। (2) मार्दव - ज्ञान और तप के क्षेत्र में अत्यधिक उपलब्धियाँ होने पर नम्र रहें। ( 3 ) आर्जव - मनवचन और काय में असंगत न रहें, अपने दोषों को न छिपायें और दूसरे को धोखा न दें। (4) शौच- संतुलन व संतोष रूपी जल से लोभ के मैल को धोयें और भोजन के प्रति आसक्ति न रखें। ( 5 ) सत्य - आगम के अनुरूप उपदेश दें चाहे मुनि स्वयं इतने ऊँचे आचरण का पालन न कर सके। (6) संयम - छोटे से छोटे जीवों को बचाने के प्रति सावधान रहें। (7) तप - तपों का पालन इस जीवन में और दूसरे जीवन में · उपलब्धियों के लिए न करें। ( 8 ) त्याग - स्वादिष्ट भोजन का त्याग करें तथा ऐसे निवास का भी त्याग करें जहाँ आसक्ति पैदा हो सकती है। ( 9 ) आकिंचन - सभी प्रकार के परिग्रह को त्यागें । ( 10 ) ब्रह्मचर्य - कामुक संबंधों से दूर रहें। 103. मूलाचार, 895, 896 104. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 394 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International - 403 For Personal & Private Use Only (87) www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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