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________________ धारणा है अर्थात् आत्मानुभव और बाहरी अभिव्यक्ति के तादात्म्यकरण से है। सिद्ध अवस्था में रहस्यात्मक अनुभव की बाहरी अभिव्यक्ति नहीं होती है जो अरिहंत के जीवन से घनिष्ठ रूप से संबंधित होती है। अरिहंत की इस दोहरी भूमिका के कारण अरिहंत सिद्धों से पहले नमस्कार किये जाते हैं, सिद्ध धर्म का उपदेश देने में असमर्थ होने के कारण केवल देव ही हैं। प्रो. ए. एन. उपाध्ये का कथन है कि “जैन तीर्थंकर जो उच्चतम आध्यात्मिक अनुभव के शिखर पर हैं वे आदर्श गुरु हैं और उनकी वाणी उच्चतम रूप से प्रामाणिक होती है ।" यह सिद्धों के महत्त्व को घटाना नहीं है किन्तु अरिहंत का उच्चतम गुरु के रूप में महिमा गान है क्योंकि गुरुत्व उनका अतिरिक्त लक्षण है। गुरु के रूप में आचार्य अरिहंत जो दिव्य आत्माएँ हैं उनसे भिन्नता लिए हुए आचार्य, उपाध्याय और साधु होते हैं जो आत्मानुभव के मार्ग पर हैं। वे अभी तक दिव्य मार्ग के यात्री हैं यद्यपि रहस्यात्मक गुण जो गुरु होने के लिए आवश्यक हैं उनमें उपस्थित हैं। केवल आचार्य को ही व्यक्तियों को रहस्यात्मक जीवन में दीक्षा देने का अधिकार है इसलिए वे गुरु कहलाते हैं। उनके जीवन का उत्कृष्ट गुण है उन आत्माओं को मुनि दीक्षा देना जो रहस्यात्मक जीवन की ओर प्रवृत्त हैं। और वे उनको नैतिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान करते हैं, उनकी भूलों को ठीक करते हैं। और उनको आध्यात्मिक मार्ग में पुनर्स्थापित करते हैं।" वह मुनि - संघ के शासन और नियमन के लिए उत्तरदायी हैं । " आचार्य का यह कर्तव्य है कि वह शास्त्र - ज्ञान में और समकालीन धर्म में पारंगत होना - 65 64. षट्खण्डागम, भाग-1, पृष्ठ 49 65. षट्खण्डागम, भाग-1, पृष्ठ 49 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only (79) www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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