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________________ (Reality) बौद्धिक और अन्तर्दृष्ट्यात्मक स्तर पर एक-दूसरे के पूर्ण विरोधी है। हम सरसरी तौर पर कह सकते हैं कि बुद्धि आध्यात्मिक यात्रा के लिए आवश्यक है जैसे अन्तर्ज्ञान परमोत्कर्ष व उपसंहार के लिए। जैसे ही रहस्यवादी आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ता है उसकी बुद्धि कुशाग्र हो जाती है। यह कहा जा सकता है कि महान् रहस्यवादी महान् तत्त्वमीमांसक हो सकते हैं जैसे- कुन्दकुन्द, पूज्यपाद, समन्तभद्र, योगीन्दु, अमृतचन्द्र, हरिभद्र और हेमचन्द्र ने विस्मयकारी महत्त्व के साहित्य की रचना की है। रहस्यवादी की जैन धारणा और उसका तत्त्वमीमांसा से संबंध का विचार करने के पश्चात् और यह जानने के पश्चात् कि रहस्यवादी और तात्त्विक दृष्टि एक दूसरे से बहुत दूर हैं, अब हम रहस्यवादी मार्ग का चौदह गुणस्थानों के अन्तर्गत विचार करेंगे, जैसा जैनाचार्यों के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। हम गुणस्थानों को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत रखने का प्रयास करेंगे। उदाहरणार्थ- (1) जाग्रति से पूर्व 30. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 9-10, गुणस्थान हैं- (1) मिथ्यात्व (2) सासादन (3) मिश्र (4) - अविरतसम्यग्दृष्टि (5) देशविरत या विरताविरत (6) प्रमत्तविरत (7) अप्रमत्तविरत (8) अपूर्वकरण (9) अनिवृत्तिकरण (10) सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान (11) उपशान्तकषाय (12) क्षीणकषाय (13) सयोगकेवली गुणस्थान (14) अयोगकेवली गुणस्थान।। 31. (1) जाग्रति से पूर्व आत्मा का अंधकारकाल- मिथ्यात्व गुणस्थान (2) आत्मजाग्रति अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान और उससे पतन- (क) सासादन गुणस्थान (ख) मिश्र गुणस्थान (3) शुद्धीकरण- (क) विरताविरत गुणस्थान (ख) प्रमत्तविरत गुणस्थान (4) ज्योतिपूर्ण अवस्था- (क) अप्रमत्तविरत गुणस्थान (ख) अपूर्वकरण गुणस्थान (ग) अनिवृत्तिकरण गुणस्थान (घ) सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान (ङ) उपशान्तकषाय गुणस्थान (च) क्षीणकषाय गुणस्थान (5) ज्योतिपूर्ण अवस्था के पश्चात अंधकार काल- पहले गुणस्थान में या चतुर्थ गुणस्थान में गिरना (6) लोकातीत जीवन- (क) सयोगकेवली गुणस्थान (ख) अयोगकेवली गुणस्थान। Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (69) Jain Education International For Personal & Private Use Only For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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