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________________ के प्रति अनुराग रखता है, जो जीवन में व्रत-रहित होता है वह जघन्य अन्तरात्मा कहलाता है। (ii) अणुव्रतों का पालन करता हुआ गृहस्थ और प्रमाद रहित मुनि जिसकी कषाय मंद है और जो आध्यात्मिक मार्ग में दृढ़ निश्चयी है वह मध्यम अन्तरात्मा कहलाता है।22 (iii) वह मुनि जिसने प्रमाद को जीत लिया है तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान में स्थित हो गया है वह उत्कृष्ट अन्तरात्मा कहलाता है। (ग) परमात्मा परमात्मा सर्वोच्च आत्मा है। यह साधक के जीवन की परिपूर्णता है, उसके आध्यात्मिक प्रयत्नों की समाप्ति है। सदेह परमात्मा अर्हत् कहलाता है जब कि विदेह परमात्मा सिद्ध होता है।24 मोक्षपाहुड का कथन है कि आत्मा कर्मरूपीमल से रहित है, दोषमुक्त है, शरीर और इन्द्रियरहित है, केवलज्ञान व शुद्धता से युक्त है। वह जन्म, वृद्धावस्था व मरण से मुक्त है; सर्वोच्च, शुद्ध, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्यसहित है; अविभाज्य और अविनाशी है। इसके अतिरिक्त वह अतीन्द्रिय है, पाप-पुण्य और पुनर्जन्म से रहित तथा शाश्वत, स्थिर और स्वतन्त्र है। 21. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 197 22. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 196 23. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 195 24. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 198 25. मोक्षपाहुड, 5, 6 नियमसार, 7 26. नियमसार, 176 27. नियमसार, 177 (66) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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