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आर्थिक क्षेत्र में कृषि और व्यवसाय दोनों क्षेत्रों में केन्द्र में भारत का पशुधन था। इस पशुधन को करोड़ों की संख्या में कत्ल किया और उसके स्थान पर मशीन आधारित उद्योगों को लाया गया। भारत की प्राकृतिक संपत्ति व कृषि क्षेत्र के उत्पादन को कोड़ियों के मोल बिटन भेजा गया और उस कच्चे माल से बनी चीजें बीसीयों गुना दामों पर वापस भारत मंगाई जाने लगी। अर्थ व्यवस्था की आधार स्वरुप खादी को नष्ट किया गया और विध्वंस की इस परंपरा ने अपने खप्पर में कई बली लिये।
सारी व्यवस्थाओं के विनाश का यह कार्यक्रम चला सन् - १८५७ तक और योजना के इस चरण के अंत का समय आया । १८५७ की लड़ाई में कारतूसों पर गाय व सूवर की चरबी लगाने की अफवाह जानबूझकर फैलाई गई, ताकि विद्रोह हो ।' योजना के अनुसार विद्रोह हुआ और उसके दमन में क्षत्रियों का जो श्रेष्ठ यौला वर्ग बचा था उसका सर्वनाश हो गया।
अब तीसरा चरण शुरु हुआ - 'कंपनी सरकार' की बिदाई का और रानी सरकार के आगमन का ! कंपनी सरकार के दमन व अत्याचार की दुहाई देकर उसका चार्टर रद्द किया गया और उसकी जगह महारानी विक्टोरियाने सन् १८५८ के "क्वीन्स प्रोक्लेमेशन" द्वारा अपना राज्य घोषित कर दिया। कैसे ? वही स्वंयभू स्वामित्व !
'कंपनी सरकार' के दमन पर मरहम लगाने तथा उसकी तुलना में 'रानी सरकार' का राज्य अच्छा कहलवाने के लिए सन् १८५८ के बाद कई रचनात्मक प्रतीत होने वाले कदम लिये गये । सन् १८५८ के आसपास ही बम्बई, कलकत्ता व मद्रास में प्रेसीडेंसी कॉलेज या युनिवर्सिटी की स्थापना हुई । योजना के आगे के चरणों के लिए जो स्थानिक नेता तैयार करने थे उनकी. शिक्षा व पश्चिम परस्त 'दीक्षा' के लिए इन कॉलेजों की स्थापना हुई । मोतीलाल नेहरु, अबुल कलाम आजाद, गोखले, तिलक, चितरंजन बसु (दीनबंधु) इत्यादि इन कालेजों मे पढ़े-बढ़े।
सदाकाल के लिए बाहर से आये आततायी शासक के स्वरुप में अंग्रेज व उनके सूत्रधार इस देश में नहीं रहना चाहते थे- ऐसा करने पर वे विश्व में निंदा व घृणा के पात्र बनते । इसलिए Exit Policy बनाना भी जरुरी था, जिसमें बाह्य स्वरुप से उनकी Exit हो जाये, परंतु शाश्वत राज्य तो उन्हीं का चले ।
चले जाने के लिए एसा माहौल बनानी जरुरी था जिसमें स्थानीय प्रजा स्वतंत्रता का आंदोलन करे और इस आंदोलन के लिए एक नेतागिरी की आवश्यकता थी। भारत की पारंपरिक नेतागिरी - महाजन संस्था, उनकी योजना के अनुकूल नहीं हो सकती थी, इसलिये किसी नयी व्यवस्था को बनाने के लिए कांग्रेस पक्ष की स्थापना १८८५ में की गयी । स्थापना की एक अंग्रेज ने और उसकी कमान दे दी गई अंग्रेजों की युनिवर्सिटीयों तथा विलायत में उच्च (कानून की ही तो!) शिक्षा प्राप्त लोगों के हाथ में । संस्था तो बन गयी, किंतु सारे देश को सम्मोहित करके एकजुट बनाने की प्रतिभा जिसमें हो वैसा नेता नहीं मिला।
तभी अंग्रेजों की नजर पड़ी दक्षिण अफ्रिका में कार्यरत गांधीजी पर । दक्षिण अफ्रिका भी ब्रिटेन के ही आधीन था और गाँधीजी ब्रिटिश दमन के खिलाफ वहाँ लड़ रहे थे । गाँधीजी में उस प्रतिभा का दर्शन होते ही, गाँधीजी के इर्द-गिर्द जमे उनके ब्रिटिश मित्रों (?) ने उन्हें भारत आकर आजादी का संग्राम शुरु करने के लिए समझाया और इस तरह सन् १९०८ में गांधीजी भारत आये । संस्था के रुप में कांग्रेस व राहयोगियों के रुप में ब्रिटिश शिक्षा संस्थाओं में पढ़ाये हुए अन्य नेता और सर्वोच्च नेता के रुप में गांधीजी ! योजना का इतना दोष रहित ढाँचा तैयार हो गया कि अब आयी अगले कदम की बारी।
राजाशाही के रहतें गोरों की भविष्य की योजना सफल नहीं हो सकती थी । अतः उनका आमूल विच्छेद आवश्यक था। इसलिए पर्यायी शासन व्यवस्था जरुरी थी - एसी व्यवस्था जो भविष्य में उनके ईशारों पर नाचे और वह व्यवस्था एक ही हो सकती थी - चुनाव पद्धति पर आधारित प्रजातंत्र । अब इस व्यवस्था के मूल डालने का समय आया और प्रायः सन् १९१९
में पहली बार People's Representation Act बनाया गया। पहली बार प्रायोगिक रुप में चुनाव कराये गये और वहीं पर - उसे छोड़ दिया गया।
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