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''फर्टिलाइज़र सबसीडी: धीमा मीठा जहर"
पत्र-पत्रिकाओं के संपादक अपने संपादकीय लेखों में फर्टिलाइजर पर देय सबसीडी को “कुपात्रदान' कहकर इस तरह की सभी सबसीडी को तुरंत बंद करने का अनुरोध एक स्वर में करें अथवा विश्वभर के पर्यावरणवादी हरितक्रांति की जिम्मेदार कृत्रिम खाद से वांझ बन रही भूमि के संबंध में चेतावनी के सायरन बजाने के लिये सिर पटक-पटक कर मर जायें तो भी सबसीडी समाप्त करने की बात तो दूर रही, पर शर्म हया बिना, बेहिचक सबसीडी की वृद्धि की सरकारी घोषणा निरन्तर गतिशील है। यह स्थिति हमारी स्वीकृत कल्याण राज्य की विभावना में विद्यमान अनेकों मूलभूत क्षतियों की ओर अंगुली-निर्देश करती है । फर्टिलाइजरों के रूप में भूमि को दवा के अधिक "डोज़" देकर उससे अधिकतम कार्य-अधिकतम उत्पादन लेने का लोभ-सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी जैसी फलद्रुप भूमि को स्मशान बनाकर समाप्त करने का आत्मघाती प्रयास मात्र है। ऐसी सीधी-सादी बात को पत्र का सम्पादक अथवा अतुल शाह समझ सकता है तो मधु दण्डवते (तत्कालीन वित्तमंत्री) या अन्य मंत्रियों के दिमाग में न उतरे यह संभव नहीं है।
वास्तव में १९४७के पश्चात जीदा के हर क्षेत्र की तरह राज्य व्यवस्था में भी नेहरू, उनकी मंडली व अनुयायियों ने विदेशी "वेस्टमिन्स्टर मॉडल" सांगोपांग स्वीकार कर लिया है। जिसके पाप से चुनाव में बहुमत प्राप्त करने के लिये कुछ लोगों को प्रसन्न रखने के जन-रंजनात्मक ध्येय ने वी. पी. व दण्डवते जैसे प्रामाणिक व निष्ठावान गिने जाने वाले राजनीतिज्ञों को भी पोप्युलिरंट - पोलिटिक्स (लोकप्रियता के राजकारण) की निकृष्ट नीतियाँ ग्रहण करने के लिये विवश किया है । प्रजा का वास्तविक कल्याण चाहने वाले जागरूक विचारक ऐसे समय में उन्हें दो-चार गालियाँ देकर अथवा इधर-उधर थोड़ी धमाचौकड़ी मशंकर बैठे रहने में आत्मसंतोष का अनुभव करने के बजाय पश्चिम-चतु नेहरू के वेलफेयर स्टेट, जिसे विनोबा अपनी व्यंग्यात्मक शैली में "इलफेयर स्टेट" कहते थे - की उधार ली हुई विषकन्या को अरब सागर में विसर्जित करनी होगी । पर जब तक लोकशाही, बहुमतवाद, चुनाव-प्रथा जैसी इन बिष कन्याओं को पवित्र गाय मानकर उन्हें छूने में भी पाप मानने वाले और इस लौह चौकठ में कैद, इधर-उधर पैबंद लगाकर कृत-कृत्यता का अनुभव करने वाले लल्लू लालाओं का पत्रकारिता से लेकर समाजसेवा के सभी क्षेत्रों में वर्चस्व है, वहां तक तो परिवर्तन निकट भविष्य में संभव प्रतीत नहीं होता। फलस्वरूप स्वतः स्वीकृत राष्ट्रीय बेहाली को जो न देख पा रहे हैं ऐसे विचारकों को तो इन परिस्थितियों में जब भी अवसर प्राप्त हो तब वित्तमंत्री अथवा प्रधानमंत्री पर चारों ओर से विचारों का निरन्तर आक्रमण करना चाहिये । कड़वी दवा पिलाने के कर्तव्य से च्युत पिता कु-पिता बने तो औलाद' . उन्हें कड़वी दवा के लाभों को बताकर ऐसी दवा पिलाने के लिये विवश कर सकती है। : : आगे फर्टिलाइजर की चर्चा करें । सबसीडी और सरकारी प्रचार के प्रचण्ड पाप से इस देश में सन् १९६१ में . ५३००० टन व २२००० टन की अल्पमात्रा में उपयोग में आ रहे फोस्फेटिक व नाइट्रोजन फर्टिलाइजरों का प्रयोग २७
वर्ष में बढ़कर सन् १९८७-८८ में क्रमशः २२,५९,००० टन व ५८,३६,००० टन के भयजनक स्तर पर पहुँच गया है । दुर्भाग्य तो यह है कि मेकॉले के समय से प्रगति के भ्रामक चिंतन में प्रसन्न-मग्न अपना मूर्ख शिक्षा विभाग अपने • पाठ्यक्रमों में इसे प्रगति का मापदंड कहकर गर्व करता है, जबकि संपूर्ण विश्व के बुद्धिजीवी फर्टिलाइजर के इस बढते हुए उपयोग को भय व चिंता की दृष्टि से देखते हैं । इस प्रगति (!) के फलस्वरूप हमारे देश की कृषि भूमि में १९६० से १९९० के तीस वर्ष की अवधि में २१,६८,५५५ टन के करीब फ्लोरिन व ५५३२ टन युरेनियम गहराई तक अड्डा जमा कर बैठ गया है। हम जो अनाज आज खा रहे है उसमें २५७५ पी.पी.एम. फ्लोरिन भी खाना पड़ रहा है। हर एक किलो अनाज के साथ २४३ विकवेरिल्स (इकाई) भी पेट में पहुंचानी पड़ रही है । श्री आर. अशोककुमार द्वारा जनवरी १९९० में तैयार मेन्युस्क्रीप्ट के अनुसार तो अपने देश की सिंचाई के अन्तर्गत भूमि के गर्भजल में नाइट्रेड का प्रमाण ३२० पी.पी.एम. हो गया है। वस्तुतः अधिकतम सुरक्षा मर्यादा मात्र ४५ पी.पी.एम. ही है।
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