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________________ के दर्शन के लिये ही कभी-कभी मंदिर का चक्कर मारना चाहिए। आसपास की दुनिया को भूल कर पलकों के बांध छलका कर बहते आँसू की धार के दर्शन उन्हें इस बात की प्रतीति करायेंगे। अल्पतम वस्त्रों में उच्छृंखलता का प्रदर्शन करती अभिनेत्री का फोटो विकृत मनोभाव पैदा कर सकता है, तो प्रशमरसनिगग्न वीतराग की मूर्ति दर्शक के भाव जगत को अवश्य ही आंदोलित कर सकेगी। यदि व्यक्ति पर उनके दर्शन का कोई 'एम्पेक्ट' न होता हो तो डाक टिकटों पर तथाकथित महापुरुषों के फोटो छपवाने से लेकर शाला-कॉलेज व सरकारी कनहरियों में गांधी, नेहरु, सुभाष, सरदार, विवेकानंद के फोटो लगाने या चौराहे पर देश- नेताओं के पुतले खड़े करवाने का द्राविड- व्यायाम बंद कर देना चाहिए | त्रिलोकगुरू तीर्थंकरों से लेकर राम कृष्ण तक व्यक्ति विशेष के आदर्श कचराटोकरी के योग्य नहीं हैं। उनकी मूर्ति उन आदर्शों के अंगारों पर छाई राख को हटाने में समर्थ । तो ऐसी मूर्तियों, मंदिरों को उचित स्थान पर बनवाना, उनकी ओर अधिक से अधिक लोगों को आकर्षित करने के लिये सर्वोत्तम कला-कारीगरी से अलंकृत करना, उसके लिये धनव्यय करना और यह धन-पूंजी तथाकथित लोक-कल्याण कार्यों में नष्ट न हो जाये उसका भी ख्याल रखना सुजनों का धर्म बन जाता है। धर्मस्थानों में प्रविष्ट विकृतियों की आड़ लेकर इन संस्थाओं, उसके संचालकों, धर्मगुरूओं, इन संस्थाओं की हितपूर्ति का द्रव्य और इन संस्थाओं के विधान स्वरूप धर्म शास्त्रों की प्रताड़ना करने में कई लोगों को आनंद आता है। अंग्रेजी में "फेवरीट व्हीपींग व्याय" नामक एक शब्द समूह का प्रयोग होता है। गुजराती में भी "हलका लहू हवालदार का" एक कहावत है । मूल्यों के ह्रास के संकट की चर्चा रहने दें। यदि मात्र आर्थिक समस्याओं को ही स्पर्श करें, तो उसके मूल में मैकॉले की शिक्षा, भौतिक सुखलक्षी विज्ञान और यंत्रवाद के उन्माद की त्रिपुटी है। गरीबी का कारण देवालय भंडारों का संग्रहित धन नहीं है, पर व्यापक बेकारी है। बेकारी के उत्पादक मंदिर नहीं अपितु कारखाने हैं, 'विकास' वग के नाम पर प्राणी व्यापार करने वालों के स्थापित हित संपूर्ण देश को मल्टीनेशनल कंपनियों के खाते में गिरवी रखने के काले करतूत करते हैं । यह विकास की निर्लज्ज और धृष्टं विभावना पूरे देश को धारावी की झोंपडपट्टी में परिवर्तित कर 'देती है । 'विकास' की यह रक्त प्यासा बक्षिणी (क्युला) समग्र देश को अस्थि-कंकाल में बदल देती है । तब इस भयानक "जेनोसाईड" के अपराध का टोकरा किसी न किसी के गले पहनाने के लिये "स्केप गोट" (बलि के बकरे ) की खोज अनिवार्य हो जाती है। मंदिर, भूर्तियाँ, देव-द्रव्य, धर्मगुरू जैसे निर-उपद्रवी निकटस्थ बकरे अन्यत्र कहां मिलते ? जहां तक इस 'विकास' की नुडैल के पंजे से मुक्ति नहीं मिलती, वहां तक देश के समस्त धर्मस्थानों की संपत्ति गरीबों में बांट दी जाये तो भी गरीबी दूर नहीं हो पायेगी । गरीदी के मूल कारण कुछ और ही हैं। जहाज में हुए छिद्र को बंद किये बिना जहाज में भरे पानी को उलेचने के लिये बहाया पसीना, जहाज को डूबने से बचा नहीं सकता । वास्तव में मंदिर, देवालय, व धर्मस्थानों का निर्माण स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, अनाथाश्रम और वृद्धों के . आवास की, और उनमें लगे कारीगरों की रोजी-रोटी की पूर्ति जैसे उद्देश्यों के लिये नहीं होता । उसका आशय तो. उन सब समस्याओं के मूल में स्थित अष्ट जगत को संतुलित करना है। फिर भी इसकी रचना में ऐसी विशेषता है कि एक मल्टीपरपज़ प्रोजेक्ट के बाय प्रोडक्ट की तरह उपर्युक्त सभी कार्यों में भी सहायक होते हैं । जो स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और उद्योगों की वकालत करते हैं, वे स्वयं अपने सीमित उद्देश्य पूरे करने में भी पूर्णतया निष्फल रहे हैं। हम अर्ध अपव्यय किसे कहें ? मंदिर व देवालयों को ? या स्कूल व कॉलेजों, अस्पतालों व फैक्ट्रियों को ? परमपूज्य मुनिराज श्री हितरुचि विजयजी महाराज साहब के मूल गुजराती निबंध " घलो घुमाड़ो कयां छे ?” का हिन्दी अनुवाद अनुवाद : श्री मनोहरलालजी सिंघी सिरोही (राजस्थान) Jain Education International संपर्क : विनियोग परिवार “बी / २ - १०४, वैभव अपार्टमेन्ट, जांबली गली, बोरीवली (पश्चिम), मुंबई- ९२. टेली ८०२०७४९ / ८०७७७८१ (48) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004203
Book TitleMananiya Lekho ka Sankalan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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