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अपव्यय का अनर्थ कहाँ ?
"इतने अधिक जिनालयों, मंदिरों, उपाश्रयों व उत्सवों के पीछे धन का अपव्यय करने के स्थान पर देवद्रव्य जैसे धार्मिक द्रव्यों को उद्योगों व कारखानों में लगा कर देश का विकास करना चाहिये ।" यह कथन ६०-७० वर्ष पूर्व देशी ग्रेज्युएटों का प्रिय गीत था । नेहरु युग में तो यह गीत मानो सप्तम स्वर में गाया गया था । आज भी शालाओं में भूगोल के विद्यार्थी भाखरा नांगल व भिलाई बोकारों के पाठ को "आधुनिक भारत के तीर्थ स्थान" के रुप में तोता रटन्त कर परीक्षा के लिये पुनरावृति करते हैं। "डिस्कवरी ऑफ इन्डिया में व्यक्त पंडितजी की अंतिम इच्छा के अनुसार गंगा यमुना जैसी नदियों में विसर्जित उनकी राख में से वे पुनः उठ खड़े हों, तो वे भी अब इस पाठ की पुनरावृति का साहस नहीं कर पायेंगे | युग अब बदल चुका है। नेहरु आज जीवित होते तो भोपाल वाली घटना होने के बाद 'टेम्पल्स् ओर टोम्ब" के लेखक डेरिल डि मोन्टे द्वारा इन तथाकथित 'मंदिरों' को 'कब्रिस्तान' की संज्ञा देने पर सलामी ठोक देते ।
औद्योगीकरण का यह भूत नेहरू के मनोमस्तिष्क पर इस बुरी तरह से सवार था कि वे तीर्थयात्रा पर जाने वाले लोगों को भाखरा-नांगल की ओर धकेल देते थे। तीन बत्ती, नवयुग निकेतन के श्री शांतिलाल मेहता ने स्वयं मुझे बताया कि वे स्वजनों के साथ सम्मेतशिखरजी की धर्मयात्रा के लिये निकले थे । मार्ग में वे दिल्ली रुके। यात्रा हेतु निकले यात्री दिल्ली पहुँचने पर प्रधानमंत्रीजी के साथ ग्रुप फोटो के लिये आतुर रहते थे । यह उस युग का फैशन था। फोटो सैशन में नेहरूजी को ज्ञात हुआ कि वे लोग शिखरजी की यात्रा के लिये निकले हैं। "सच्चे तीर्थ तो भाखरा नांगल हैं" कहकर श्री नेहरु ने अपने पी.ए. को आज्ञा देकर उनके लिये भाखरा नांगल जाने के लिए बस की व्यवस्था करवा दी। ऐसा प्रतीत हुआ कि उन यात्रियों को भाखरा नांगल की ओर जबरदस्ती धकेल दिया गया हो । यह प्रसंग टेक्नोलॉजिकल उन्माद की पराकाष्ठा का प्रमाण है । उसके पश्चात् तो गंगा में बहुत जल बह चुका है । इस प्रवाह के साथ अब तो नेहरु की राख .भी.. बंगाल के उप सागर के गहरे तल में जा पैठी है ।
युग परिवर्तन के साथ इस गीत के गायकों ने भी ध्रुव पंक्ति को ही बदल दिया है । कारखानों के स्थान पर स्कूल, कॉलेज व अस्पताल शब्द रखकर उसी गीत को पुनः गतिमान किया है। 'जब निर्धन भूख से मर रहे हों तो मंदिरों • जिनालयों के लिये धन के अपव्यय का औचित्य ही क्या है ?' यह संपूर्ण चर्चा का सार है। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि जब सम्पूर्ण संसार में भारत के शिल्प, स्थापत्य कला का ध्वज लहरा रहा है तब पश्चिम की उबा देने वाली शैली की आग से जलते लाखों लोगों के हृदय में थोड़ी देर शांति अमृत का सिंचन करने वाले ये मंदिर क्या धन का अपव्यय है ? या हर वर्ष करोड़ों की कीमत के "रिअल बसरा मोती" का अरब देशों में निर्यात कर उसके बदले में पेट्रोल - प्रोडक्ट्स प्राप्त करना और उन्हें जलाकर धुआँ उडाना, यह धन का अपव्यय है ?
इन तुच्छ विचारों के मूल में छिछली प्रज्ञा है जो सारे विश्व की समस्याओं का समाधान "गटीरिअल वर्ल्ड" में ढूंढती है । ये लोग शेख चिल्ली चिंतन में रचे-पचे होते हैं । वे देव-द्रव्य व धर्मार्थ राशि को गरीबों में वितरण अथवा उसके उपयोग से स्कूल - अस्पताल खड़े करने में समस्याओं का समाधान मानते हैं। ऐसे लोगों को मूर्ख शिरोमणि कहने से यदि उन्हें बुरा लगता हो तो उन्हें 'गलिबल" (भोले-भटके) कहना चाहिये । वे लोग सुख को अर्थ काम के साथ, रूपया-रूप, कंचन-कामिनी या धन व तन के साथ इक्वेट करते हैं और दुख को अर्थ- काम के अभाव के साथ । उनकी मान्यता है कि वस्तु क्रय के लिये धन का अभाव ही दुख का कारण है। यदि यह सत्य होता तो चीज वस्तुओं के अंबार 'के मध्य जीवन जीने वाले धनिक सुखी ही होते और निर्धन मात्र दुखी । हम ऐसे धनिकों से भी परिचित हैं जो अरबों की सम्पत्ति के बीच में अपने दग्ध हृदय के साथ जी रहे हैं, जो नींद की गोली के बिना सो भी नहीं सकते । गांव के गोबर-' माटी से लिपे झोपड़ों में प्रसन्नता से जीवन व्यतीत करते निर्धनों को भी आप जानते होंगे । सुख का यह समीकरण ही गलत है । इस भूल भरी अवधारणा के आधार पर खडा भवन गलत दिशा की ओर इंगित करता है । त्रिलोक गुरु परमात्मा महावीर से लेकर शंकराचार्य तक के तत्वदृष्टाओं के लिये "प्राणीनाम् आर्तिनाशनम् " एक मिशन था । उनकी पारदर्शी प्रज्ञा यह देखने में समर्थ थी कि दुख - दग्ध प्राणियों के दुख का नाश दो रूपये किलो अनाज विक्रय में अथवा भीख से भरे परदेशी वाहनों द्वारा लाये वस्त्र वितरण में नहीं है
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