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________________ . विश्व धर्म परिषद "विश्व धर्म परिषद" शब्द द्विअर्थी है। विदेशियों ने जिस अर्थ में यह शब्द प्रचलित किया है वह है - योग्यता के आधार पर नहीं, बल्कि बहुमत के आधार पर सारे विश्व का एक ही धर्म हो; और यह अर्थ स्थापित करने के लिये विश्व के अन्य सभी धर्मों के कृत्रिम प्रतिनिधियों की बनाई गई एक परिषद, जो इस विश्व धर्म का प्रचार करे। यह है "विश्व धर्म परिषद" का विस्तृत वाच्यार्थ व लक्ष्यार्थ । पोप के नेतृत्व में जगत की श्वेत प्रजाओं और उनके नेताओं का लक्ष्य जगत में “एक भाषा, एक वेषभूषा, एक खान-पान, रहन-सहन पद्धति, एक शिक्षा, एक कोर्ट, एक न्याय व्यवस्था, एक अर्थव्यवस्था इत्यादि करने का है। उसी के साथ साथ एक ही धर्म, एक ही ईश्वर तथा एक ही रंग (श्वेत रंग) की प्रजा रखने का भी है। इसके लिये सभी अल्पसंख्यक पक्षों को बहुमत के पक्ष में शामिल (विलीन) कर देना है; और इस तरह जगत में एक "विश्व धर्म" स्थापित करना है और इसके लिये इस परिषद का आयोजन है। इस बात को युक्तिपूर्वक संजो कर १८९२ में शिकागो में पहली विश्व धर्म परिषद आयोजित की गई थी। परंतु उस परिषद में भाग लेने वाले अन्य धर्मों के प्रतिनिधियों को इस कूटनीति का ख्याल उस समय नहीं आया था। पाश्चात्य लोग अन्य धर्मों के रहस्यों को जानने के लिये उन धर्मों के प्रतिनिधियों को बुलाते हैं और 'हमारे धर्मों के बारे में विदेश के लोग सुनें, उसकी प्रशंसा करें', इस उत्साह में हरेक धर्म के प्रतिनिधि इस परिषद में गये। धर्म की चर्चा के लिये तद्-तद्धर्म के विद्वानों की आवश्यकता होती है, न कि किसी प्रतिनिधि की। परंतु इस सूक्ष्म बात की समझ व पाश्चात्य प्रजा के हेतुओं पर शंका - ये दोनों ही बातें उस समय असंभव थीं। "प्रतिनिधिऔर "निष्णात-विद्वान' के बीच क्या अंतर है? यह बात उस समय ख्याल में न आयी हो, यह उस समय के वातावरण के मान से सह ! संभवित है । किंतु अब कूटनीति से बनाया गया उनका चक्रव्यूह भारतवासियों को ठीक से समझ लेना चाहिये । नहीं तो 'सुज्ञ' माने जाने वाले लोग भी बुद्धि की कमी, मूढ़ता व ठगे जाने की निर्बलता वाले सिद्ध होंगे। अन्य धर्मों के रहस्यों-तत्त्वों को जानने की बात तो मात्र बाहरी दिखावा था। असली बात तो जगत में एक ही धर्म की स्थापना करने की घटना में जगत के अन्य धर्म विरोधी नहीं परंतु सहयोगी बनें, यह चाल थी। यदि एसा हो सके तो ही भविष्य में उन्हें अल्पसंख्यक धर्म की श्रेणी में रखकर, बहुमत के आधार पर एक ही विश्व धर्म (ईसाई धर्म) की कबूलात उनसे करवाई जा सकती है। कालांतर में इन अल्पसंख्यक धर्मों का जगत से अस्तित्व मिटा देने के लिये आज उनका साथ लिया जा रहा है। एसा साथ लेने के लिये अलग अलग समय पर अलग अलग कार्यक्रम बनाये जाते रहे हैं। १८९२ में तो प्रत्येक धर्मों के प्रतिनिधियों को इस वैश्विक आयोजन के प्रति आकर्षित मात्र करने का व्यूह था। सन् १९३३ में लंदन में सयाजी राव गायकवाड महाराजा की अध्यक्षता में विश्व धर्म परिषद का आयोजन हुआ। इसमें अहिंसा की एक नयी परिभाषा बनाकर, उसे महत्व देकर, अहिंसा की परंपरागत, मूल, सत्य और व्यापक परिभाषा को हटाने का कार्यक्रम शुरु हुआ। सन् १९३६ में फिर से शिकागो में "सर्व-धर्म परिषद' आयोजित हुई। इसमें सर्व-धर्म-समानता, समन्वय, सामूहिक प्रार्थना इत्यादि कार्यक्रमों को मुख्यता दी गई। तदुपरांत बहुसंख्य के अलावा के (अल्पसंख्य धर्मों के) प्रतिनिधियों को न शामिल करने का सिलसिला शुरु किया गया। (28) For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004203
Book TitleMananiya Lekho ka Sankalan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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