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________________ विधानसभाओं/लोकसभा में हो-हल्ला करने वाले शौकीन वकीलों की समझ से यह मायाजाल परे है। उनको समझ न आये, यह स्वाभाविक भी है। क्योंकि भारत की प्रजा के सच्चे हित-चिंतकों तथा प्रजावत्सल महापुरुषों के सच्चे प्रतिनिधियों को दूर रखकर आधुनिक वकीलों वगैरह शिक्षितों को बनावटी तरीके से प्रजा के प्रतिनिधि करार देकर अपने हित का नया संविधान ब्रिटिशरों ने बनवा लिया है। ये बन-बैठे प्रतिनिधि इतनी चतुराई से अग्रिम पंक्तियों में जम गये हैं कि सच्चा हितस्वी वर्ग आगे आ ही न पाये और हर पांच वर्षों में इसी वर्ग की सत्ता-वापसी का पुनरावर्तन हुआ करे। जबकि सांस्कृतिक संविधान तो समस्त प्रजा के हित की दृष्टि से परापूर्व से ही प्रवर्तमान है। उसमें नये आदर्शों की खिचड़ी मिलाकर आज प्रजा के जीवन में दोनों का मिश्र रूप से अमल चालू है। एक संविधान के चक्र दांयी तरफ से बांयी तरफ घूमते हैं तो दूसरे संविधान के चक्र बांयी तरफ से दांयी तरफ घुमते हैं। दोनों में. समन्वय नहीं, अपितु स्पर्धा है। इसलिये, इन दोनों चक्रों में जिस समय जिस पक्ष का जोर होता है वह उस समय दूसरे पक्ष के चक्र के आरों को तोड़कर उसे धारहीन बना सकता है। किंतु खूबी यह है कि बहुधा नवसर्जन के चक्र को ही आज ज्यादा धारदार बनाया गया है, और उसका उद्देश ही सांस्कृतिक जीवन को नष्ट करना है। उसे बहुत तेज चलाया जाता है। इस नये चक्र के पीछे चर्च संस्था, श्वेत प्रजा, उसकी बलवान सत्तायें, धर्म, संपत्तियाँ, आधुनिक विज्ञान, यंत्रवाद, बौद्धिक व आर्थिक प्रभाव व अणुबम जैसे भयंकर शस्त्रों का बल है, जिन्हें दिन-ब-दिन अधिक मजबूत व अधिक गतिशील किया जाता है। सांस्कृतिक चक्र के पीछे रंगीन/अश्वेत प्रजा का पुण्य, प्राचीन विश्ववत्सल पोबल, इस भूमि में जन्मे महापुरुषों की उत्तम प्रेरणा के अणु तथा जीवन में विरासत में मिली कई सांस्कृतिक जीवन-व्यवस्थाओं के बल काम करते हैं। नवसर्जन के लिये भारत की ही हिन्दू प्रजा के 'सुधारक' विचार के तथाकथित क्रांतिकारी लोगों द्वारा बनाये गये माध्यम काम कर रहे हैं। सांस्कृतिक ताकतों को नुकसान पहुँचाकर प्रागतिक/सुधारक ताकतों को सहायक हो इस तरह से चर्च संस्था के संचालकों ने इन माध्यमों को "फिट' कर लिया है, ताकि हिन्दु प्रजा कभी एक मत पर न आ सके, स्वहित के सच्चे मार्ग पर न आ सके। मजबूत लोहे की पाटों की बीच प्रजा पिस जाये एसी दशा अपने ही भाईयों की इन लोगों ने कर दी है। यह मतभेद हिन्दू प्रजा को एक विचार पर आकर एकसंपी (एकता व एक-संपी होने में अंतर है) करने दे एसा संभव नहीं है। और इस स्थिति का दोषारोपण होता है 'भारत के जाति-भेदों और धर्म-भेदों पर। संस्कृति के बारे में सभी एकमत हैं किन्तु बड़ी फूट डालने वाला है . आधुनिक संविधान और उसके आदर्श। संस्कृति के आदर्श और अनात्मवादी/भौतिक प्रगतिवाद के आदर्शों का मेल कैसे हो? अर्थात प्रगतिवादी आदर्श प्रजा की एकता के लिये मुख्य बाधक ताकत हैं। भारतीय प्रजा खुद के लिये नहीं परंतु समस्त विश्व के भले के लिये जीती आयी है और आज भी जीना चाहती है। उसके संत इस बात के सबसे बड़े प्रमाण हैं। . प्रजा के जीवन में सांस्कृतिक ताकतें आज भी किस तरह काम कर रही हैं? उनको नष्ट करने के लिये क्या व्यवस्थायें की गयी हैं? इतने प्रचंड प्रहारों के बावजूद यह प्रजा अभी भी कई अंशों में अपने मल रूप में टिकी हुई है, तो उसकी आंतरिक ताकत कितनी होगी? कुन विषयों पर तो स्वतंत्र निबंध की आवश्यकता है। (नोट : यह लेख सन् १९६५ के आसपास लिखा गया था) - स्व. पंडित प्रभुदास बेचरदास पारेख Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004203
Book TitleMananiya Lekho ka Sankalan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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