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________________ श्री उपासकदशांग सूत्र *-*-*-10-06-08-10--8-12-20-**-*-*-*-*-*-*-08-08-2-8-10--00-00-00-08--2-8-20-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00 तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा, णण्णत्थ रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुणिग्गहेणं वित्तिकंतारेणं। और बढ़ा कर ‘अरिहंत चेइयाई' करा दिया। किन्तु यह प्रक्षेप भी व्यर्थ रहा। क्योंकि उससे भी उन उपासकों की साधना और आराधना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह तो तब होता कि उनके सम्यक्त्वव्रत या प्रतिमा आराधना में, मूर्ति के नियमित दर्शन करने, पूजन-महापूजन करने और तीर्थयात्रादि का उल्लेख होता। ऐसा तो कुछ भी नहीं है, फिर इस अड्गे से होना भी क्या है? इस पाठ के विषय में जो खोज हुई है. उसका विवरण 'श्री अगरचन्द भैरोंदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था बीकानेर' से प्रकाशित 'जैन सिद्धांत बोल संग्रह भाग ३' के परिशिष्ठ से साभार उद्धृत करते हैं - ___ उपासकदशांग के आन्नदाध्ययन में नीचे लिखा पाठ आया है - "नो खलु मे भंते कप्पइ अजपभिज्ञ अन्नउत्थिए वा, अन्नउत्थियदेवयाणि वा, अन्नउत्थिपरिग्गहियाणि वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा" इत्यादि। ___ अर्थात् हे भगवन्! मुझे आज से लेकर अन्ययूथिक, अन्ययूथिक के देव अथवा अन्ययूथिक के द्वारा सम्मानित या गृहित को वन्दना नमस्कार करना नहीं कल्पता। इस जगह तीन प्रकार के पाठ उपलब्ध होते हैं - (क) अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि। (ख) अन्न उत्थियपरिग्गहियाणि चेइयाई। (ग) अन्न उत्थियपरिगहियाणि अरिहंत चेइंयाई। विवाद का विषय होने के कारण इस विषय में प्रति तथा पाठों का खुलासा नीचे लिखे अनुसार है - (क) 'अन्न उत्थियपरिग्गहियाणि' यह पाठ बिब्लोथिका इण्डिका, कलकत्ता द्वारा ई० सन् १८६० में प्रकाशित अंग्रेजी अनुवाद सहित उपासकदशांग सूत्र में है। इसका अनुवाद और संशोधन डॉक्टर ए० एफ० रुडल्फ हानले पी० एच० डी० ट्यूबिंजन फेलो ऑफ कलकत्ता यूनिवर्सिटी, आनरेरी फाइलोलोजिकल सेक्रेटी टू दी एसिआटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल ने किया है। उन्होंने टिप्पणी में पांच प्रतियों का उल्लेख कियाहै, जिनका नाम A. B. C. D. और E रक्खा है A. B और D में (ख) पाठ है C और E में (ग)। ___हार्नल साहेब ने 'चेइयाई' और 'अरिहंतचेइयाई' दोनों प्रकार के पाठ को प्रक्षिप्त माना है। उनका कहना है - 'देवयाणि' और 'परिग्गहियाणि' पदों में सूत्रकार ने द्वितीया के बहुवचन में 'णि' प्रत्यय लगाया है। 'चेइयाई' में 'इ' होने से मालूम पड़ता है कि यह शब्द बाद में किसी दूसरे का डाला हुआ है। हार्नले साहेब ने पांचों प्रतियों का परिचय इस प्रकार दिया है। (A) यह प्रति इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी कलकत्ते में है। इसमें ४० पन्ने हैं, प्रत्येक पन्ने में १० पंक्तियाँ और प्रत्येक पंक्ति में ३८ अक्षर हैं। इस पर संवत् १५६४, सावन सुदी १४ का समय दिया हुआ है। प्रति प्रायः शुद्ध है। (B) यह प्रति बंगाल एसियाटिक सोसाइटी की लाइब्रेरी में है। बीकानेर महाराजा के भण्डार में रखी हुई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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