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श्री उपासकदशांग सूत्र
विवेचन - चौथे ब्रह्मचर्य व्रत के पांच अतिचार इस प्रकार हैं -
१. इत्वरिका परिगृहीतागमन - विवाह हो जाने के बाद भी उम्र, शारीरिक विकास आदि नहीं होने के कारण, मासिक-धर्म में नहीं आने आदि अनेक कारणों से जो भोग-अवस्था को अप्राप्त है, ऐसी स्वस्त्री से गमन करना इत्वरिका परिगृहीतागमन' है।
२. अपरिगृहीतागमन - जिसके साथ सगाई तो हुई है, परन्तु विवाह नहीं होने से जो अब तक अपरिगृहीता है, ऐसी स्ववाग्दत्ता कन्या से गमन करना अपरिगृहीतागमन है। ...
३. अनंगक्रीड़ा - कामभोग के अंग योनि और मेहन है। इनके अतिरिक्त अन्य अंग काम के अंग नहीं माने गए हैं, उनसे क्रीड़ा करना ‘अनंगक्रीड़ा' है।
४. परविवाहकरण - जिनकी सगाई, विवाह अपने जिम्मे नहीं हो, उनकी सगाई करने की प्रेरणा करना, सहयोग देना, विवाह करवाना आदि को परविवाहकरण में गिना गया है।
५. कामभोग तीव्राभिलाष - गौण रूप से पांचों इंद्रियविषयों और मुख्य रूप से मैथुन में अत्यंत गृद्धि - मूर्छा भाव रख कर उन्हीं अध्यवसायों से युक्त रह कर व्रत की उपेक्षा करना, भोग-साधनों को बढ़ाना, 'कामभोग तीव्राभिलाष' है। ___'वेद जनित बाधा' को शान्त करने की भावना के अतिरिक्त शेष सभी कार्यों के लिए यह अतिचार है। यथा - बाजीकरण करना, कामवर्द्धक पौष्टिक भस्में, रसायनें, औषधियाँ आदि लेना, वासनावर्द्धक पठन, कामवर्द्धक चित्रादि अवलोकन, अन्योन्य आसन, सौन्दर्य प्रसाधक सामग्री का प्रयोग आदि।
अपरिग्रह व्रत के अतिचार तयाणंतरं च णं इच्छापरिमाणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा ण समायरियव्वा, तंजहा - खेत्तवत्थुपमाणाइक्कमे, हिरण्णसुवण्णपमाणाइक्कमे, दुपयचउप्पयपमाणाइक्कमे, धणधण्णपमाणाइक्कमे, कुवियपमाणाइक्कमे ५। ___कठिन शब्दार्थ - खेत्तवत्थुपमाणाइक्कमे - क्षेत्र वास्तु-प्रमाणातिक्रम, हिरण्णसुवण्णपमाणाइक्कमे - हिरण्यसुवर्ण प्रमाणातिक्रम, दुपयचउप्पयपमाणाइक्कमे - द्विपद-चतुष्पद प्रमाणातिक्रम, धणधण्णपमाणाइक्कमे - धन-धान्य प्रमाणातिक्रम, कुवियपमाणाइक्कमे - कुप्य प्रमाणातिक्रम।
भावार्थ - तदनन्तर श्रमणोपासक को इच्छा परिमाण व्रत के पांच अतिचारों को जानना
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