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प्रथम अध्ययन - श्रमणोपासक आनंद - आनंद गाथापति का वैभव
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प्रकार बोले-हे भगवन्! अपने तीर्थ की अपेक्षा धर्म की आदि करने वाले तीर्थंकर भगवान् यावत्. मोक्ष को संप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने छठे अंग ज्ञाताधर्मकथा का जो अर्थ बतलाया, वह मैं सुन चुका हूँ। हे भगवन्! सातवें अंग उपासकदशा का श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या अर्थ (भाव) फरमाया है?
आर्य सुधर्मा बोले - हे जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सातवें अंग उपासकदशा के दस अध्ययन फरमाये हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं - १. आनंद २. कामदेव ३. गाथापति चुलनीपिता ४. सुरादेव ५. चुल्लशतक ६. गाथापति कुण्डकौलिक ७. सद्दालपुत्र ८. महाशतक ६. नन्दिनीपिता और १०. शालिहिपिता।
विवेचन - एक जगह जो वर्णन विस्तार से आ गया उसको ‘जाव' पद से अन्य स्थलों पर संकोच प्रदान किया जाता है ताकि ज्यादा विस्तार न हो। आगमों में स्थान स्थान पर 'जाव' पद आता है वह अन्य आगमों की भलामण देने वाला समझना चाहिये।
- आर्य सुधर्मा स्वामी चम्पा नगरी में पधारे, परिषद् धर्म श्रवण के लिए आयी, वापस गईयह सब ‘जाव' पद का संकोच बता रहा है। भगवान् महावीर स्वामी के लिए जो 'जाव' पद ' आया उसमें पूरा का पूरा ‘णमोत्थुणं' का छठी विभक्ति वाला 'आइगराणं' आदि पाठ तीसरी विभक्ति ‘आइगरेण' आदि में ग्रहण कर लेना चाहिए।
भगवान् महावीर स्वामी को प्रथम पाट पर एवं भगवान् सुधर्मा स्वामी को द्वितीय पाट पर माना गया है। तृतीय पाट पर जंबू स्वामी को मानने का कारण यह है कि भगवान् के तीन पाट मुक्त हुए। भगवान् की मौजूदगी में जो गणधर मुक्ति पधारे, उनके शिष्य सुधर्मा स्वामी को संभलाए गए थे। सबसे लम्बी उम्र वाले गणधर भगवान् के पाटवी हुआ करते हैं और जो गणधर केवली हो जाते हैं वे पाटवी नहीं बनते हैं। गणधरों के पाटवी भी गणधर नहीं हुआ करते हैं अतः सुधर्मा स्वामी का पट्टधर बनना भगवान् की विद्यमानता में ही तय हो गया था।
आनंद गाथापति का वैभव
जइ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पण्णत्ते?
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