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श्री उपासकदशांग सूत्र
उवागच्छइ, उवागच्छित्ता महासययं तहेव भणइ, जाव दोच्चंपि तच्वंपि एवं वयासी - हं भो तहेव । तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए दोच्वंपि तच्वंपि एवं वुत्ते समाणे आसुरुते ४ ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता रेवई गाहावइणिं एवं वयासी- 'हं भो रेवई ! अपत्थियपत्थिए! ४ एवं खलु तुमं अंतो सत्तरत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूया समाणी अट्टदुहट्टवसट्टा असमाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अहे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुए णरए चउरासीइवाससहस्सट्ठिइएस णेरइएस णेरइयत्ताए उववज्जिहिसि । '
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कठिन शब्दार्थ - सत्तरत्तस्स सात रात्रि के अंदर, अलसएणं - अलंसक, वाहिणारोग से, अट्टदुहट्टवसट्टा - आर्त्त-व्यथित, दुःखित तथा विवश, असमाहिपत्ता - असमाधिपूर्वक, उववज्जिहिसि - उत्पन्न होगी ।
भावार्थ महाशतकजी को अवधिज्ञान होने के बाद एक दिन रेवती गाथापत्नी कामवासना में उन्मत्त हो कर निर्लज्जतापूर्ण वस्त्र गिराती हुई यावत् पौषधशाला में जहाँ महाशतक श्रमणोपासक थे वहाँ आई और पूर्वोक्त रीति से कहने लगी। दूसरी-तीसरी बार रेवती के द्वारा कामोत्पादक वचन सुन कर महाशतक को क्रोध आ गया। उन्होंने अवधिज्ञान से उपयोग लगाया और अवधिज्ञान से उसका आगामी भव देख कर कहने लगे- “ अरे हे रेवती! जिसकी कोई चाहना नहीं करता, उसे मौत को तू चाहने वाली है, यावत् तुझे, वचन - विवेक भी नहीं रहा । तू निश्चय ही आज से सातवीं रात्रि में अलस रोग से आर्त्तध्यानयुक्त हो कर असमाधिपूर्वक काल कर के पहली नरक के लोलुयच्चुय नरकावास में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में जन्म लेगी।"
तणं सा रेवई गाहावइणी महासयएणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणी एवं वयासी- 'रुट्टे णं ममं महासयए समणोवासए, हीणे णं ममं महासयए समणोवासए अवज्झाया णं अहं महासयएणं समणोवासएणं, ण णज्जइ णं अहं केणवि कुमारेणं मारिज्जिस्सामि' त्तिकट्टु भीया तत्था तसिया उव्विग्गा संजायभया सणियं सणियं पच्चोसक्कड़, पच्चोसक्कित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ,
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