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________________ १४४ श्री उपासकदशांग सूत्र "महागोप कौन हैं?" श्रमण भगवान् महावीर स्वामी महागोप हैं। "भगवान् महागोप किस प्रकार हैं?" - सकडालपुत्र ने पूछा। गोशालक ने कहा - "हे सकडालपुत्र! संसार-अटवी में बहुत से जीव सन्मार्ग से नष्ट हो रहे हैं, विनष्ट हो रहे हैं, मिथ्यात्वादि द्वारा खाए जा रहे हैं, छेदे जा रहे हैं, भेदे जा रहे हैं, उनका हरण किया जा रहा है, उन गायों के समान जीवों की धर्म रूपी डंडे से रक्षा कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी मुक्ति रूपी बाड़े में पहुँचाते हैं। अतः वे महान् ग्वाले के समान होने से महागोप कहे गए हैं। 'आगए णं देवाणुप्पिया! इहं महासत्थवाहे?' 'के णं देवाणुप्पिया! महासत्थवाहे?' सद्दालपुत्ता! समणे भगवं महावीरे महासत्थवाहे' ‘से केणटेणं (देवाणु० महासत्थवाहे)?' ‘एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे संसाराडवीए बहवे जीवे णस्समाणे विणस्समाणे जाव विलुप्पमाणे (उम्मग्गपडिवण्णे) धम्ममएणं पंथेणं सारक्खमाणे णिव्वाणमहापट्टणाभिमुहे साहत्थिं संपावेइ, से तेणट्टेणं सद्दालपुत्ता! एवं वुच्चइ-समणे भगवं महावीरे महासत्थवाहे।' .. कठिन शब्दार्थ - महासत्थवाहे - महासार्थवाह, णिव्वाणमहापट्टणाभिमुहे - निर्वाणरूप महानगर में। भावार्थ - गोशालक ने पूछा - "हे देवानुप्रिय! क्या यहाँ ‘महासार्थवाह' आए थे?" "कौन महासार्थवाह?" 'श्रमण भगवान् महावीर स्वामी महासार्थवाह हैं।' "कैसे?" गोशालक ने कहा - "हे सकडालपुत्र! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी संसार अटवी में भटकते हुए, नष्ट होते हुए यावत् विलुप्त होते हुए जीवों को धर्म रूपी मार्ग दिखा कर भली प्रकार से रक्षण करते हैं तथा निर्वाण रूप महानगर में पहुंचाते हैं। अतः श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को मैं महासार्थवाह कहता हूँ।" 'आगए णं देवाणुप्णिया। इहं महाधम्मकही?' 'के णं देवाणुप्पिया! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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