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सातवां अध्ययन - श्रमणोपासक सकडालपुत्र - सकडालपुत्र श्रमणोपासक बना १३७ **-10-08-12-10-02-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-*-*-19--10-19-19-19-10-20-00-00-00-00-00-00-00-12
भावार्थ - तदनन्तर आजीविकोपासक सकड़ालपुत्र ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वंदन नमस्कार कर कहा - 'हे भगवन्! मैं आपसे धर्म सुनना चाहता हूं।' ___ तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सकडालपुत्र आजीविकोपासक तथा उपस्थित परिषद् को धर्मकथा फरमाई।
तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ठ जाव हियए जहा आणंदो तहा गिहिधम्म पडिवजइ। णवरं एगा हिरणकोडी णिहाणपउत्ता, एगा हिरण्णकोडी वुड्डिपउत्ता, एगा हिरण्णकोडी पवित्थरपउत्ता, एगे वए दसगोसाहस्सिएणं वएणं, जाव समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव पोलासपुरे णयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोलासपुरं णयरं मझमझेणं जेणेव सए गिहे जेणेव अग्गिमित्ता भारिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अग्गिमित्तं भारियं एवं वयासी - ‘एवं खलु देवाणुप्पिए! समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे, तं गच्छाहि णं तुमं समणं भगवं महावीरं वंदाहि जाव पज्जुवासाहि, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजाहि।'
- कठिन शब्दार्थ - पंचाणुव्वइयं - पांच अणुव्रत, सत्तसिक्खावइयं - सात शिक्षाव्रत, पडिवजाहि- स्वीकार करो।
भावार्थ - आजीविकोपासक सकडालपुत्र श्रमण भगवान् महावीर से धर्म सुन कर अत्यंत प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुए और उन्होंने भी आनन्द की तरह श्रावक धर्म स्वीकार किया।
विशेषता यह है कि पाँचवें परिग्रह-परिमाण में एक करोड़ स्वर्णमुद्रा निधान में, एक करोड़ व्यापार में तथा एक करोड़ की घर-बिखरी और दस हजार गायों का एक वज्र, इस के उपरांत परिग्रह का त्याग किया। व्रत ग्रहण कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वंदना-नमस्कार किया
और अपने घर आ कर अग्निमित्रा भार्या से कहा - "हे देवानुप्रिय! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यहाँ विराजमान हैं। तुम जाओ, वंदना-नमस्कार यावत् पर्युपासना करो। पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप श्रावकधर्म स्वीकार करो।
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