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________________ सत्तमं अज्झयणं - सातवां अध्ययन श्रमणोपासक सकडालपुत्र (४४) सत्तमस्स उक्खेवो । पोलासपुरे णामं णयरे । सहस्संबवणे उज्जाणे । जियसत्तू राया । तत्थ णं पोलासपुरे णयरे सद्दालपुत्ते णामं कुंभकारे आजीविओवासए परिवसइ, आजीवियसमयंसि लद्धट्टे गहियट्ठे पुच्छियट्ठे विणिच्छियट्ठे अभिगयट्ठे अट्ठमिंजपेमाणुरागरत्ते य, अयमाउसो ! आजीवियसमए अट्ठे अयं परमट्ठे सेसे अट्टे त्ति आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहर | कठिन शब्दार्थ - कुंभकारे - कुम्भकार - कुम्हार, आजीविओवासए - आजीविकोपासकआजीविक सिद्धान्त या गोशालक मत का अनुयायी, आजीविय समयंसि - आजीविक मत में, लद्धट्ठे - लब्धार्थ - श्रवण आदि द्वारा यथार्थ तत्त्व को प्राप्त किए हुए, गहियट्ठे - गृहीतार्थ ग्रहण किये हुए, पुच्छियट्ठे - पृष्टार्थ - प्रश्न द्वारा उसे स्थित किए हुए, विणिच्छि विनिश्चितार्थ-निश्चित् रूप में आत्मसात किए हुए, अभिगयट्ठे - अभिगतार्थ - स्वायत्त किए हुए, अट्ठिमिंजपेमाणुरागरत्ते अस्थि और मज्जा पर्यन्त धर्म के प्रति प्रेम व अनुराग से भरा हुआ, अट्ठे - अर्थ - प्रयोजनभूत, परमट्ठे - परमार्थ, सेसे- शेष, अणट्ठे - अनर्थ - अप्रयोजनभूत । मत भावार्थ- सप्तम अध्ययन के प्रारम्भ में भगवान् सुधर्मा स्वामी फरमाते हैं - हे जम्बू ! उस काल उस समय पोलासपुर नामक नगर के बाहर सहस्राम्रवन नामक उद्यान था । जितशत्रु वहां का राजा था। उस पोलासपुर नगर में सकडालपुत्र नामक कुम्हार रहता था जो गोशालक आजीविक सिद्धान्त को मानने वाला था। वह आजीविक मत के यथार्थ तत्त्व को प्राप्त किए हुए, ग्रहण किये हुए, जिज्ञासा या प्रश्न द्वारा उसे स्थित किए हुए निश्चित् रूप में आत्मसात् किये हुए और स्वायत्त किये हुए था । वह अस्थि और मज्जा पर्यंत अपने धर्म के प्रति प्रेम व अनुराग से भरा हुआ था। वह आजीविक मत को ही अर्थ, परमार्थ और इसके सिवाय अन्य को अनर्थ मानता था । इस प्रकार वह आजीविक मतानुसार आत्मा को भावित करता हुआ विचर रहा था । - Jain Education International · For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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