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________________ - द्वितीय अध्ययन श्रमणोपासक कामदेव - इन्द्र से प्रशंसित एमट्ठे भुजो भुज्जो खामेइ, खामेत्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए। तए णं से कामदेवे समणोवासए णिरुवसग्गं त्तिकट्टु पडिमं पारे । कठिन शब्दार्थ - असद्दहमाणे श्रद्धा नहीं करता हुआ, हव्वमागए खा खमाता हूं, खमंतु क्षमा करे, पायवडिए - पैरों में पड़ कर, पंजलिउडे जोड़ कर, णिरुवसग्गं - उपसर्ग रहित, पडिमं प्रतिमा को । भावार्थ तब मैंने शक्रेन्द्र के वचनों पर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि नहीं की। उनके वचन को मिथ्या सिद्ध करने के लिए तथा आपको धर्म से डिगाने के लिए मैं यहाँ आया और आपको अनेक उपसर्ग दिए, किन्तु आप धर्म से तनिक भी डिगे नहीं । धन्य है आपकी ऋद्धि, बल, वीर्य, द्युति, यश और पुरुषार्थ-पराक्रम को । आपकी निर्ग्रथ प्रवचन में दृढ़ता और निष्ठा मैंने देखी । हे देवानुप्रिय ! आपको मैंने जो उपसर्ग दिये, उस अपराध को क्षमा कीजिए। आप क्षमा करने योग्य हैं, मैं क्षमाप्रार्थी हूँ इत्यादि वचनों से क्षमा मांगते हुए उस देव ने, हाथ जोड़कर कामदेव के पैरों में पड़ कर बार-बार क्षमा याचना की और जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया । 'अब मैं निरुपसंग हो गया हूँ' - ऐसा विचार कर कांमदेवजी ने प्रतिमा पाली । Jain Education International - - - - (२२) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ । तए णं से कामदेवे समणोवासए इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे 'एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव विहरड़, तं सेयं खलु मम समणं भगवं महावीरं वंदित्ता णमंसित्ता तओ पडिणियत्तस्स पोसहं पारित्तए' त्ति कट्टु एवं संपेहेइ संपेहित्ता सुद्धप्पावेसाइं वत्थाई जाव अप्पमहग्घ जाव मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता चम्पं णयरिं मज्झंमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जहा संखो जाव पज्जुवासइ । तए णं समणे भगवं महावीरे कामदेवस्स समणोवासयस्स तीसे य जाव धम्मकहा समत्ता । कठिन शब्दार्थ सुद्धप्पावे साइं शुद्ध तथा सभा योग्य मांगलिक वस्त्र, मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते - पुरुष समूह से घिरा हुआ । भावार्थ उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी चंपानगरी पधारे। - - For Personal & Private Use Only ६५ शीघ्र आया, हाथ - www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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