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४.
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७.
६. कोई साधक बड़े दोष को गुप्त रूप में सेवन करके छिपाना चाहे और दूसरा व्यक्ति उस दोष को प्रकट कर सिद्ध करके प्रायश्चित्त दिलवावे तो उसे दीक्षाछेद का ही प्रायश्चित्त आता है।
दूसरे के द्वारा सिद्ध करने पर भी अत्यधिक झूठ-कपट करके विपरीत आचरण करे अथवा उल्टा चोर कोतवाल को डांटने का काम करे किन्तु मजबूर करने पर फिर सरलता स्वीकार करके प्रायश्चित्त लेने के लिए तैयार होवे तो उसे नई दीक्षा का प्रायश्चित्त दिया जाता है।
[8]
लघुचौमासी प्रायश्चित्त जघन्य एक आयम्बिल ( या एक एकासना), उत्कृष्ट १०८ उपवास है।
गुरुचौमासी प्रायश्चित्त जघन्य एक उपवास (चार एकासना), उत्कृष्ट १२० उपवास है।
उक्त दोषों के प्रायश्चित्त स्थानों का बार - बार सेवन करने पर अथवा उनका सेवन लम्बे समय तक चलता रहने पर तप - प्रायश्चित्त की सीमा बढ़ जाती है, जो कभी दीक्षाछेद तक भी बढ़ा दी जा सकती है।
८.
यदि उस दुराग्रह में ही रहे एवं सरलता स्वीकार करे ही नहीं तो उसे गच्छ से निकाल दिया जाता है।
निशीथ सूत्र के कुल बीस उद्देशक है। इसके पहले के उन्नीस उद्देशकों में प्रायश्चित्त का विधान इस प्रकार हैं.
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पहले उद्देशक में गुरुमासिक प्रायश्चित्त योग्य दोषों का प्ररूपण है। 1 उद्देशक २ से ५ तक में लघुमासिक प्रायश्चित्त योग्य दोषों का प्ररूपण है। उद्देशक ६ से ११ तक में गुरुचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोषों का प्ररूपण है। उद्देशक १२ से १९ तक में लघुचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोषों का प्ररूपण है । बीसवें उद्देशक में प्रायश्चित्त देने की प्रक्रिया का प्रतिपादन किया गया है।
प्रथम उद्देशक - इस उद्देशक में सर्वप्रथम संयमी साधक के लिए हस्तकर्म आदि ऐसी सभी क्रियाएं करने का निषेध किया है, जिससे काम-वासना जागृत हो, जो संयमी जीवन के लिए महाघातक है। इसके अलावा कीचड़ आदि से बचने के लिए रास्ते में पत्थर
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