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__ वस्तुतः अपवाद का सेवन विवशता के कारण है, जिसे संयमी साधक, संयम रक्षा का और कोई रास्ता न दिखने पर अपनाता है। वह अपवाद का सेवन करते समय सतत् ध्यान रखता है कि उसके स्वीकृत व्रतों में कम से कम दोष लगे। इसलिए आगमकार महर्षि ने इस मार्ग का सेवन करने अथवा इसके सेवन की आज्ञा प्रदान करने का अधिकार विशिष्टज्ञानी बहुश्रुत साधकों को ही दी है, जो आचारांग आदि साहित्य के गहन अभ्यासी एवं छेद सूत्रों के गंभीर एवं गहन रहस्यों में पारंगत हो, जिन्हें उत्सर्ग और अपवाद मार्ग सेवन का पूर्ण परिज्ञान हो। ___ चार छेद सूत्रों में निशीथ सूत्र का अपना मौलिक स्थान है। व्यवहार सूत्र में स्पष्ट वर्णन है कि जो श्रमण बहुश्रुत हो, उसे कम से कम निशीथ का मूल एवं अर्थ का ज्ञाता होना आवश्यक है। निशीथ सूत्र में पारंगत श्रमण को ही आचार्य-उपाध्याय जैसे महत्त्वपूर्ण पद प्राप्त हो सकते हैं। क्योंकि वर्तमान में केवलज्ञानी, मन:पर्यायज्ञानी अवधिज्ञानी, पूर्वधारी श्रुतकेवली मौजूद नहीं है। अतः इनकी अनुपस्थिति में उन्हीं द्वारा निबद्ध प्रायश्चित्त विधि जो आचार प्रकल्प (निशीथ) में उद्धृत है, उसे वर्तमान में इनके पारंगत आचार्यादि को प्रायश्चित्त देने का अधिकार है।
. आगमों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि निशीथ सूत्र का नि!हण चौदह पूर्वधर श्रुत केवली भद्रबाहुस्वामी ने प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व से किया है। इस पूर्व में बीस अर्थाधिकार है। उसमें तीसरी वस्तु का नाम आचार है। उसी के आधार से निशीथ सूत्र के बीस अध्ययनों का निरूपण हुआ है।
प्रस्तुत निशीथ सूत्र में अपवाद मार्ग के सेवन करने पर संयमी साधक को कौन से दोष का किस प्रकार का प्रायश्चित्त ग्रहण करना होता है। इसकी विस्तार से चर्चा की गई है। सामान्य स्थविर कल्पी संयमी साधकों के लिए अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार की शुद्धि आलोचना और मिच्छामि दुक्कडं अल्प प्रायश्चित्त से हो जाती है। अनाचार दोष सेवन की स्थिति निशीथादि सूत्रों में प्रायश्चित्त की व्यवस्था है। जबकि जिनकल्पी या प्रतिमाधारी आदि विशिष्ट साधकों के लिए तो अतिक्रम आदि के लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था है। तप प्रायश्चित्त की सूची -
१. . लघुमासिक प्रायश्चित्त-जघन्य एक एकासना, उत्कृष्ट २७ उपवास है। २. गुरुमासिक प्रायश्चित्त जघन्य एक निवी (दो एकासना), उत्कृष्ट ३० उपवास है।
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