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________________ द्वितीय उद्देशक - सागारिक की जानकारी नहीं करने का प्रायश्चित्त . ४५. जिस मकान में साधु ठहरा हो, उसके स्वामी के यहाँ से आहार-पानी लेना, उसका सेवन करना साधु के लिए निषिद्ध हैं। अनुमोदन करना भी निषिद्ध है, क्योंकि इससे गृहस्वामी पर जाने-अनजाने कुछ भार पड़ना आशंकित है। यद्यपि श्रद्धावान् गृहस्थ साधु को आहारादि देने में कदापि भार अनुभव नहीं करता। वह साधु को भिक्षा देने में अपना सौभाग्य मानता है। किन्तु फिर भी कदाचन किसी के मन में अन्यथा भाव न आ जाए, इस दृष्टि से उसके यहाँ से आहार-पानी लेने का परिवर्जन किया गया है। उसके यहाँ से आहार-पानी लेना दोषयुक्त एवं प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। इसमें जैन धर्म की आचार मर्यादा और साधुचर्या के संबंध में सूक्ष्मातिसूक्ष्म चिन्तन गर्भित है। 'विवेगे धम्ममाहिए' का आदर्श इसमें संपुटित है। उपर्युक्त सूत्रों में शय्यातर पिण्ड का लघुमासिक प्रायश्चित बताया है, किन्तु ठाणांग आदि आगमों में गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त बताया है, इसका कारण प्रायश्चित्त स्थान अवस्था . भेद से गुरु के लघु और लघु के गुरु हो जाते हैं, इसीलिए सूत्रों में अलग-अलग वर्णन संभव हो सकता है, परम्परा (जीत) व्यवहार शय्यातर पिण्ड को गुरु प्रायश्चित्त के रूप में मानने का है। सागारिक की जानकारी नहीं करने का प्रायश्चित्त . जे भिक्खू सागारियं कुलं अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय पुव्वामेव पिंडवायपडियाए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइजइ॥ ४८॥ कठिन शब्दार्थ - अजाणिय - जाने बिना, अपुच्छिय - पूछे बिना, अगवेसिय - गवेषणा किए बिना; पुव्वामेव - पहले ही, पिंडवायपडियाए - पिंडपातप्रतिज्ञा - आहारपानी लेने की बुद्धि से - विचार से। . भावार्थ - ४८. जो भिक्षु शय्यातर कुल को जाने बिना, उस संबंध में पृच्छा और गवेषणा किए बिना भिक्षा लेने की बुद्धि से तदधिकृत घर में प्रवेश करता है या प्रवेश करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। - विवेचन - यहाँ शय्यातर के घर के संबंध में जानना, पूछना तथा गवेषणा करना इन तीन शब्दों का प्रयोग हुआ है। 'यह श्रमणोपासक - श्रावक का घर है या श्रावकेतर का है' - ऐसा निश्चय करने के अर्थ में यहाँ जाणिय - जानना शब्द आया है। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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