________________
द्वितीय उद्देशक - अवशिष्ट आहार-परिष्ठापन-विषयक प्रायश्चित्त
४३
भावार्थ - ४५. जो साधु भिक्षा में मनोनुकूल - रुचिकर आहार प्राप्त कर यदि यह अनुभव करे कि वह अधिक मात्रा में प्राप्त हो गया है तो पास में ही (दो कोस के सीमावर्ती) यदि उपाश्रय आदि में साधर्मिक, सांभोगिक, समनोज्ञ तथा अपरिहार्य - निरतिचार चारित्र के कारण माननीय साधु हों तो उन्हें पूछे बिना, आमंत्रित किए बिना अधिक आहार को परठता है या परठते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। - विवेचन - "समानो धर्मो येषां ते साधर्मिका" इस व्युत्पत्ति के अनुसार सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र मूलक पंचमहाव्रतात्मक धर्म की आराधना में जो परस्पर समान होते हैं, उन्हें 'साधर्मिक' कहा जाता है।
इस सूत्र में आए हुए सांभोगिक शब्द का एक विशेष अर्थ है। व्याकरण में तद्धित प्रक्रिया के अन्तर्गत यह संभोग शब्द से बना है। जैन परंपरा में संभोग का अपना पारिभाषिक अर्थ है। जिन साधुओं को एक मंडल में बैठकर परस्पर एक साथ आहार आदि करना कल्पता है, वे समान संभोग युक्त या सांभोगिक कहे जाते हैं।
जैन आगमों में इसी अर्थ में बहुलता से इसका प्रयोग हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि भगवान् महावीर स्वामी के समय में तथा उनके निर्वाण के बाद भी कुछ समय पर्यन्त संभोग शब्द प्रायः इसी अर्थ में प्रचलित रहा हो।
भाषा-शास्त्र के अनुसार अर्थ-विस्तार, अर्थ-संकोच, अर्थोत्कर्ष तथा अर्थापकर्ष आदि के रूप में एक ही शब्द उत्तरवर्ती काल में भिन्न-भिन्न सामाजिक मानसिकताओं के परिणामस्वरूप पूर्वापेक्षया भिन्न अर्थों का द्योतक बनता जाता है। संभोग शब्द के साथ भी संभवतः ऐसा ही घटित हुआ हो। यह शब्द अर्थपरिवर्तन की चिरन्तन प्रक्रिया में से गुजरता हुआ आज स्त्री-पुरुष के यौन संबंध के अर्थ में प्रचलित है। आश्चर्य होता है, शब्द परिवर्तन की दिशाएँ कितनी विचित्र हैं, अर्थ का कितना विपर्यास हो जाता है।
जनसाधारण वास्तविकता को समझ सकें, इसलिए ऐसे शब्दों की भलीभाँति व्याख्या की जानी चाहिए। ___मनोज्ञ या रुचिकर आहार के अधिक प्राप्त हो जाने पर इस सूत्र में साधु द्वारा उसके परठने के संबंध में मार्गदर्शन दिया गया है। ___उपर्युक्त सूत्र में 'मणुण्ण' शब्द होने से अमनोज्ञ आहारादि को अदूर में भी परठने का इतना प्रायश्चित्त नहीं आता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org