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निशीथ सूत्र
मनोनुकूल प्रासुक आहार सेवन एवं मनःप्रतिकूल
आहार परिष्ठापन का प्रायश्चित्त जे भिक्खू अण्णयरं भोयणजायं पडिगाहित्ता सुब्भिं सुब्भिं भुंजइ दुब्भिं दुब्भिं परिट्ठवेइ परिट्ठवेंतं वा साइजइ॥ ४४॥ ___ कठिन शब्दार्थ - भोयणजायं - भोजनजात - खाद्य-स्वाद्य आदि विविध प्रकार के . प्रासुक भोज्य पदार्थ, सुब्भिं - सुरभि - मनोज्ञ वर्ण, गंध, रसयुक्त भोज्य पदार्थ, दुब्भिं - दुरभि - अमनोज्ञ वर्ण, गंध, रसयुक्त भोज्य पदार्थ। ..
भावार्थ - ४४. जो भिक्षु कई प्रकार का प्रासुक आहार ग्रहण कर उसमें से मनोनुकूलरुचिर-रुचिर आहार का सेवन करता है तथा अरुचिकर-अरुचिकर आहार को परठ देता है या परठते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - इस सूत्र में भिक्षा में लाए हुए अनेकविध आहार में से उत्तम वर्ण, गंध, रसयुक्त आहार का सेवन करना और कलुषित वर्ण, गंध, रसयुक्त आहार को परठना दोषयुक्त- . प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। क्योंकि जो भिक्षु खान-पान में जिह्वा-लोलुपता युक्त होता . है, वही ऐसा करता है। जिह्वा-लोलुपता सर्वथा परिहेय है। साधु इस संदर्भ में सदैव जागरूक रहे, भोज्य-लिप्सा से सर्वथा बचा रहे। इसीमें उसके साधुत्व का सार्थक्य है।
अवशिष्ट आहार-परिष्ठापन-विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू मणुण्णं भोयणजायं पडिगाहित्ता बहुपरियावण्णं सिया अदूरे तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुण्णा अपरिहारिया संता परिवसंति ते . अणापुच्छिय अणिमंतिय परिट्ठवेइ परिट्ठवेंतं वा साइजइ॥ ४५ ॥
कठिन शब्दार्थ - मणुण्णं - मनोज्ञ - मनोनुकूल, रुचिकर, बहुपरियावण्णं - बहुपर्यापन्न - अधिक प्राप्त, सिया - हो - हो जाए, अदूरे - समीप, तत्थ - वहाँ, साहम्मियासाधर्मिक - समान धर्माचरणशील, संभोइया - सांभोगिक - मण्डल - समूह में आहार आदि करने के कल्प से युक्त, समणुण्णा - समनोज्ञ - सविवेक विहरण समुद्यत, अपरिहारिया - अपरिहारिक - अतिचार रहित चारित्र के कारण ग्राह्य, संता - विद्यमान, परिवसंति - रहते हों, अणापुच्छिय - बिना पूछे, अणिमंतिय - आमंत्रित किए बिना।
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