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निशीथ सूत्र
प्राकृत साहित्य में गाहा (गाथा) शब्द का प्रयोग आर्या छन्द के लिए विशेष रूप से हुआ है। जिस प्रकार संस्कृत में अनुष्टुप् छन्द का बहुलतया प्रयोग पाया जाता है, उसी प्रकार प्राकृत वाड्मय में गाहा गाथा छन्द का विशेष रूप से प्रयोग हुआ है।
हाल की ‘गाहा सतसई (गाथा सप्तशती) में सात सौ पद्य हैं, जो गाहा या आर्या छन्द में रचित हैं। आर्या छन्द का लक्षण निम्नांकित है
यस्याः पादे प्रथमे, द्वादशमात्रास्तथातृतीयेऽपि ।
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अष्टादश द्वितीये, चतुर्थक पञ्चदश सार्या ॥
जिसके पहले चरण में बारह मात्राएँ, दूसरे चरण में अट्ठारह मात्राएँ, तीसरे चरण में बारह मात्राएँ तथा चौथे चरण में पन्द्रह मात्राएँ होती हैं, उसे आर्या या गाथा छन्द कहा जाता है।
"तीर्यते अनेन इति तीर्थम्" इस व्युत्पत्ति के अनुसार, जिसके द्वारा नदी या समुद्र को अथवा संसार - सागर को पार किया जाता है, उसे तीर्थ कहा जाता है। सभी धार्मिक परंपराओं के लोग अपने-अपने धर्म-संप्रदाय को संसार सागर से पार करने का हेतु मानते हैं । , अत: उनके लिए वह तीर्थ-स्वरूप है । "तीर्थं यस्यास्ति स तीर्थी तीर्थिको वा” ज़ो किसी तीर्थ विशेष तथा धर्म-संप्रदाय विशेष से संबद्ध होता है, उसे तीर्थिक कहा जाता है।
इन सूत्रों में प्रयुक्त अन्यतीर्थिक शब्द जैनेतर धर्म-संप्रदाय परिव्राजक, तापस, शाक्य, आजीवक, सांख्यानुयायी, योगी आदि के लिए आया है। प्राचीनकाल में भगवान् महावीर स्वामी के समय में तथा उसके पश्चात् प्रचलित जैनेतर धर्म-संप्रदायों के संबंध में औपपातिक सूत्र में विशेष रूप से वर्णन हुआ है, जो पठनीय है।
इन सभी संप्रदायों के अनुयायी अपने - अपने संप्रदाय या धर्मतीर्थ को कल्याण का, र-सागर को पार करने का हेतु मानते थे ।
संसार
यहाँ प्रयुक्त अन्यतीर्थिक के साथ जो गृहस्थ शब्द का प्रयोग आया है, वह उन गृहस्थ भिक्षाजीवियों का सूचक है, जो किसी तिथि विशेष या वार विशेष के समय भिक्षा याचना करते हैं।
जैन धर्मानुयायी श्रावक-श्राविकाओं का इन सूत्रों में प्रयुक्त 'गृहस्थ' शब्द से ग्रहण नहीं हुआ है, अर्थात् साधु-साध्वियों के भिक्षा आदि में दलाली के लिए श्रावक-श्राविका साथ में जाने का इन सूत्रों से निषेध नहीं होता है 1 1
इन सूत्रों में भिक्षु को अन्यतीर्थिक तथा गृहस्थ के साथ, पारिहारिक भिक्षु को अपारिहारिक भिक्षु के साथ भिक्षार्थ जाने, विचारभूमि तथा विहारभूमि में जाने एवं इनके साथ ग्रामानुग्राम
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