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निशीथ सूत्र .
पूर्व-संस्तुत - गृहस्थ काल में, बाल्यावस्था में परिचय युक्त माता-पिता, बन्धु-बान्धव आदि, पच्छासंथुयाणि - पश्चात्-संस्तुत - युवावस्था में परिचय युक्त सास, ससुर, साले आदि, पुव्वामेव - पूर्व - भिक्षाकाल से पहले ही, अणुपविसित्ता - अनुप्रविष्ट होकर - जाकर, भिक्खायरियाए - भिक्षाचर्या हेतु, अणुपविसइ - प्रवेश करता है।
भावार्थ - ३९. स्थिरवास में विद्यमान या नवकल्पी विहारचर्या में संस्थित या ग्रामानुग्राम विचरणशील जो भिक्षु भिक्षाचर्या काल के पहले ही अपने बाल्यावस्था के परिचित, युवावस्था के परिचित कुलों में - परिवारों में जाता है, तत्पश्चात् भिक्षा हेतु उनके घरों में प्रवेश करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ..
विवेचन - साधु जीवन शुद्धाचार विषयक मर्यादाओं से और नियमों से बंधा होता है। सभी कार्यों के लिए मर्यादायुक्त विधिक्रम और व्यवस्थाएँ निर्देशित हैं, उनका उल्लंघन करना दोष है। उससे व्रताराधना व्याहत होती है। ___ गृहस्थ जीवन का संपूर्णतः परित्याग कर पंचमहाव्रतमय संयमयुक्त-जीवन अपना लेने के . पश्चात् साधु का न तो कोई परिवार होता है और न कोई बन्धु-बान्धव तथा इष्ट-मित्र आदि ही होते हैं। विश्वबन्धुत्व का आदर्श अपनाया हुआ वह सब प्रकार के ममत्व से मुक्त होता है। प्राणी-मात्र के प्रति उसमें समता का भाव होता है।
गृहस्थ जीवन के पूर्व परिचित पारिवारिकों या संबंधियों के कुलों में यदि कोई साधु भिक्षाकाल के पहले ही भिक्षार्थ जाता है तो वह दोषपूर्ण है, प्रायश्चित्त योग्य है। क्योंकि वैसा करने में उन पारिवारिकजनों के प्रति उसका राग प्रतीत होता है। उनके यहाँ से उसे अनुकूल पदार्थ प्राप्त होंगे, यह लिप्सा भी प्रकट होती है। राग एवं लिप्सा - आहार आदि विषयक लोलुपता साधु के लिए सर्वथा वर्जित है। ऐसा करता हुआ साधु संयम-पथ से च्युत होता जाता है, इस सूत्र का ऐसा आशय है। अन्यतीर्थिक आदि के साथ भिक्षाचर्या आदि हेतु गमन-विषयक प्रायश्चित्त ___ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिओ वा अपरिहारिएण सद्धिं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए णिक्खमइ वा अणुपविसइ वा णिक्खमंतं वा अणुपविसंतं वा साइजइ ॥ ४०॥
जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिओ वा अपरिहारिएण
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