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द्वितीय उद्देशक - नित्य- प्रवास - विषयक प्रायश्चित्त
पिंडो खलु भत्तट्ठो, अवड्ढ पिंडो तस्स जं अर्द्ध । भागो तिभागमादि, तस्सद्धमुवड्डूभागो य ॥ १००९ ॥
यहाँ पिंड शब्द का प्रयोग भोजन या आहार के अर्थ में है । उसका आधा (३) भाग अपार्धं कहा गया है। भाग शब्द त्रिभाग या एक तिहाई ( 3 ) का सूचक है। ऊपार्ध उसके (तिहाई) भाग के आधे (६) भाग का द्योतक है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्राचीन काल में प्रायः राजकुलों तथा विशिष्ट संपन्न कुलों में नित्यप्रति सहायतापेक्षी जनों को दान देने की परंपरा थी। उनके लिए दानशालाओं में विशेष रूप से भोजन तैयार किया जाता था अथवा उन कुलों में तैयार किए गए भोजन का आधा या तिहाई या छठा भाग दान के लिए सुरक्षित या निर्दिष्ट होता था । साधु को इन चारों ही प्रकार के आहार को स्वीकार करना यहाँ दोषपूर्ण, प्रायश्चित्त योग्य कहा गया है।
ऐसे कुलों से उपर्युक्त रूप में आहार लेने से अन्तराय दोष लगता है, क्योंकि वहाँ से आहार पाने वालों को इससे विघ्न होता है, उन्हें आहार नहीं मिल पाता ।
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साथ ही साथ वैसा करने से पश्चात् कर्म दोष भी लगता है, क्योंकि साधु द्वारा आहार ले लिए जाने पर दानार्थियों को देने हेतु पुनः आहार तैयार किया जाता है, जिससे आरम्भजा हिंसा होती है। क्योंकि साधुओं द्वारा आहार ले लिए जाने के कारण ही पुनः आहार-विषयक आरम्भ - समारम्भ करना होता है, अन्यथा वैसा करने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती । इन्हीं कारणों से उपर्युक्त प्रकार का आहार अस्वीकार्य है।
नित्य प्रवास विषयक प्रायश्चित्त
जे भिक्खू णितियावासं वसइ वसंतं वा साइज्जइ ॥ ३७॥
कठिन शब्दार्थ - णितियावासं नित्यवास मासकल्प एवं चातुर्मास कल्प की मर्यादा का उल्लंघन कर नित्य एक ही स्थान पर प्रवास, वसई - वास करता है रहता है I
भावार्थ - ३७. जो साधु मासकल्प - विषयक एवं चातुर्मास कल्प-विषयक प्रवास का अतिक्रमण कर नित्य एक ही स्थान पर वास करता है, रहता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - साधु की आवास-विषयक कल्प मर्यादा के संबंध में आचारांग सूत्र में कालातिक्रान्त क्रिया और उपस्थान क्रिया संज्ञक दो दोषों का उल्लेख हुआ है ।
o आचारांगसूत्र, श्रुतस्कन्ध-२, अध्ययन - २, उद्देशक - २.
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