________________
द्वितीय उद्देशक - नित्यप्रति, नियत अग्रपिण्ड
-
Jain Education International
-
नित्यप्रति, नियत अग्रपिण्ड
जे भिक्खू णितियं अग्गपिंडं भुंजइ कठिन शब्दार्थ - णितियं नैत्यिक अग्रपिण्ड - भोजन से पूर्व बहिर्निष्काषित विशिष्ट आहारांश, भुंजइ - भोगता है
खाता है । भावार्थ - ३२. जो भिक्षु नित्यप्रति या नियत रूप में अग्रपिण्ड का भोग - सेवन करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन इस सूत्र में आये हुए 'णितियं' शब्द के संस्कृत में नैत्यिक और नियत दो रूप बनते | नैत्यिक शब्द तद्धित प्रक्रिया में नित्य से बनता है। जो कार्य नित्य किया जाता है, उसे नैत्यिक कहते हैं । जो कार्य निश्चित रूप में किया जाता है, उसे नियत कहा जाता है। इस सूत्र में आया अग्रपिण्ड शब्द अग्र+पिंड के योग से बना है। अग्र का एक अर्थ प्रधान या विशिष्ट है, दूसरा अर्थ आगे या पहले है। गृहस्थ द्वारा भोजन करने से पूर्व देव निमित्त, साधु निमित्त, बलि निमित्त आदि के रूप में आहार का जो विशिष्ट भाग थाली से निकाल कर अलग रखा जाता है, उसे 'अग्रपिण्ड' कहा जाता है ।
इन तीनों ही स्थितियों से संबद्ध आहार लेना साधु के लिए दोषपूर्ण है। किसी के यहाँ नित्यप्रति आहार के लिए जाना शास्त्रानुमोदित नहीं है, व्यावहारिक दृष्टि से भी अनुचित है, उसमें अनेक दोष आशंकित हैं। इसी प्रकार नियत रूप में कहीं आहारादि लेने जाना और प्राप्त करना दूषित है। अग्रपिण्ड लेने में भी औद्देशिक आदि अनेक दोष संभावित हैं।
-
-
ग्रहण का प्रायश्चित्त
ग्रहण का प्रायश्चित्त
भुंजंतं वा साइज्जइ ॥ ३२॥
नित्य प्रति या नियत रूप में, अग्गपिंडं
३३
दशवैकालिक सूत्र में वर्णित नियाग पिंड नामक अनाचार से यह सूत्र संबंधित हैं ।
'नियाग' शब्द नित्य पिंड का वाचक है। नियाग पिंड का एक अर्थ किसी गृहस्थ का आमन्त्रण स्वीकार कर उसके यहाँ कभी भी आहार लेने हेतु जाना, आहार प्राप्त करना किया गया है। आमंत्रण के बिना किसी गृहस्थ के यहाँ से नित्य प्रति आहार- पानी लेना भी नियाग पिंड के अन्तर्गत हैं ।
•
• उत्तराध्ययन सूत्र के अध्ययन २० की गाथा ४७ में आए हुए 'णियागं' शब्द का अर्थ शांतिचन्द्रीय टीका में इस प्रकार किया है - 'णियागं - नित्याग्रं नित्य पिण्ड मित्यर्थः ।' अर्थात् प्राचीन टीकाओं में भी णियाग शब्द का अर्थ 'नित्य पिण्ड' किया गया है।
* दशवैकालिक सूत्र अध्ययन
३.२.
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org