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'प्रथम उद्देशक - पूतिकर्म दोषयुक्त आहारादि सेवन का प्रायश्चित्त
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विवेचन - आयुर्वेद शास्त्र में रसोई घर में जमे हुए धूएं की पर्त या बुरादे का प्रयोग दाद, खुजली आदि चर्मरोगों में उपयोगी कहा गया है।
निशीथ चूर्णि में इस संबंध में विवेचन हुआ है, तदनुसार साधु दाद, खुजली आदि के उपचार हेतु किसी गृहस्थ के यहाँ उसकी आज्ञा लेकर रसोई घर की छत आदि से निरवद्य, उपयुक्त साधन के सहारे धूएं की पर्त को उतारे तो उसमें कोई दोष नहीं लगता। ___ यदि गृहस्वामी रसोई घर में जाने की आज्ञा न दे अथवा आज्ञा देने पर भी साधु यदि शारीरिक असामर्थ्यवश धूएं की पर्त को उतारने में स्वयं अक्षम हो और वह किसी अन्यतीर्थिक द्वारा, गृहस्थ द्वारा उसे उतरवाए या उतरवाते हुए का अनुमोदन करे तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि चूर्णिकार ने दाद, खुजली आदि की चिकित्सा में धूएं के बुरादे का किस प्रकार प्रयोग किया जाए, यह स्पष्ट नहीं किया है। इसलिए जो उसे प्रयोग में ले, उसे चाहिए कि वह इस संबंध में सुयोग्य चिकित्सक से परामर्श करे।
घूतिकर्म दोषयुक्त आहारादि सेवन का प्रायश्चित्त ___ जे भिक्खू पूइकम्मं भुंजइ भुंजंतं वा साइजइ। तं सेवमाणे आवजइ मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥ ५९॥ ।
॥णिसीहऽज्झयणे पढमो उद्देसो समत्तो॥१॥ कठिन शब्दार्थ - पूइकम्मं - पूतिकर्म संज्ञक दोष, भुंजइ - उपभोग करता है - प्रयोग में या काम में लेता है, सेवमाणे - सेवन करता हुआ, आवज्जइ - आपादित करता है, मासियं - मासिक (गुरुमासिक), परिहारट्ठाणं - परिहार-स्थान. - परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त, अणुग्धाइयं - अनुद्घातिक। ...
भावार्थ - ५९. जो साधु पूतिकर्म दोषयुक्त आहार, उपधि तथा वसति का उपयोग करता है या उपयोग करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
उपर्युक्त ५९ सूत्रों में कहे गए किसी भी प्रायश्चित्त स्थान के सेवन करने वाले को अनुद्घातिक परिहार-तप रूप गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
इस प्रकार निशीथाध्ययन (निशीथ सूत्र) में प्रथम उद्देशक परिसमाप्त हुआ।
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