________________
जैन आगम साहित्य के उद्गमकर्ता तीर्थंकर प्रभु-होते हैं, जो अपनी कठिन साधनाआराधना के बल पर चार घाती कर्मों को क्षय कर केवलज्ञान-केवलदर्शन रूपी लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं, जिसके द्वारा वे लोक-अलोक के समस्त सूक्ष्म-स्थूल, रूपी, अरूपी सभी अजीव द्रव्यों एवं जीवों के स्वरूप को जानते एवं देखते हैं। इसका परिचय देते हुए आगमों में बतलाया गया है कि -
"द्रव्य से केवलज्ञानी लोकालोक के समस्त द्रव्यों जानते देखते हैं। क्षेत्र से समस्त क्षेत्र को, काल से भूत-भविष्य और वर्तमान तीनों काल-समस्त काल और भाव से समस्त भावों को जानते और देखते हैं।" (नंदी सूत्र-भगवती सूत्र ८-२)
• यह केवल ज्ञान सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण, अव्याहत, आवरण रहित, अनन्त और प्रधान होता है, इससे वे सर्वज्ञ समस्त भावों के प्रत्यक्षदर्शी होते हैं। वे समस्त लोक पर्याय जानते देखते हैं। गति-आगति, स्थिति, च्यवन, उपपात, खाना-पीना, करना-करीना, प्रकंट-गुप्त आदि समस्त भावों को प्रत्यक्ष जानते और देखते हैं। (आचारांग २-१५ ज्ञाता० ८) - यदि कोई शंका करे कि "जिस प्रकार हम अपनी आँखों से देख कर, कानों से सुन कर यावत् सूंघ, चख और स्पर्श करके ही जानाते हैं, बिना इन्द्रियों की सहायता के नहीं जान सकते, इसी प्रकार केवलज्ञानी भी क्या इन्द्रियों की सहायता से जानते हैं ? इसका समाधान आगमों में स्पष्ट किया गया है कि केवल ज्ञानी भगवान् का ज्ञान आत्म-प्रत्यक्ष होता है (नन्दी)। वे पूर्व आदि सभी दिशाओं में सीमित और असीमित ऐसी सभी वस्तुओं को जानते और देखते हैं। उनके ज्ञान, दर्शन पर किसी प्रकार का आवरण नहीं रहता।"
"केवलज्ञानी, अधोलोक में सातों नरक पृथ्वियों को, ऊर्ध्वलोक में सिद्ध शिला तक और समस्त लोक तथा लोक में एक परमाणु से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक को अर्थात् समस्त पदार्थों को जानते और देखते हैं और इसी प्रकार सम्पूर्ण अलोक को भी जानते हैं।"
(भगवती सूत्र १४-१०) इस प्रकार पूर्णता प्राप्त होने के पश्चात् तीर्थंकर प्रभु संसार के समस्त जीवों के हित के लिए अर्थ रूप में उपदेश फरमाते हैं, जिसे विमल बुद्धि के धारी गणधर सूत्र बद्ध करते हैं। यानी मूल अर्थात्मक आगम के प्रणेता तीर्थंकर प्रभु हैं और उसे सूत्र बद्ध करने वाले गणधर भगवन्त हैं। आगम साहित्य की जो प्रामाणिकता है, उसका मूल कारण गणधरकृत होने से नहीं प्रत्युत उसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर भगवान् की वीतरागता और सर्वज्ञता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org