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प्रथम उद्देशक - याचित उपकरण अविधिपूर्वक लौटाने का प्रायश्चित्त
अपने, एक्कस्स एक के, अट्ठा
प्रयोजन के
लिए, अण्णमण्णस्स
कठिन शब्दार्थ - अप्पणो अन्य को दूसरे को, अणुप्पदेइ - अनुप्रदान करता है - देता है । भावार्थ - ३१. जो साधु केवल अपने प्रयोजन के लिए सूई की याचना कर उसे किसी अन्य साधु को देता है या देते हुए का अनुमोदन करता है तो उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
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३२. जो साधु केवल अपने प्रयोजन के लिए कतरणी की याचना कर उसे किसी अन्य साधु को देता है या देते हुए का अनुमोदन करता है तो उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है । ३३. जो साधु केवल अपने प्रयोजन के लिए नखछेदन की याचना कर उसे किसी अन्य साधु को देता है या देते हुए का अनुमोदन करता है तो उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ३४. जो साधु केवल अपने प्रयोजन के लिए कर्णशोधनक की याचना कर उसे किसी 1. अन्य साधु को देता है या देते हुए का अनुमोदन करता है तो उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - जो साधु-सूई आदि कोई आवश्यक उपकरण अपने प्रयोजन के लिए याचित कर लेवे, उसे उसका अपने प्रयोजन के लिए ही उपयोग करना चाहिए, किसी दूसरे साधु को देना विधिसंगत नहीं है। ऐसा करना दोषयुक्त है, प्रायश्चित्त योग्य है। क्योंकि इससे अपने कथन का विपर्यास होता है। सत्य महाव्रत बाधित होता है ।
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साधु समुदाय में भिन्न-भिन्न साधुओं के भिन्न-भिन्न आवश्यक कार्य होते हैं, अतः सूई. आदि ग्रहण करते समय भाषा का विवेक रखना चाहिए। अर्थात् किसी कार्य या व्यक्ति का निर्देश नहीं करना चाहिए। यदि किसी कार्य के लिए अनाभोग से निर्देश करने में आ गया हो तो उसी के अनुसार व्यवहार करना चाहिए ।
याचित उपकरण अविधिपूर्वक लौटाने का प्रायश्चित्त
जे भिक्खू सूई अविहीए पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणंतं वा साइज्जइ ॥ ३५ ॥ जे भिक्खू अविहीए पिप्पलगं पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणंतं वा साइज्जइ ॥ ३६ ॥ जे भिक्खू अविहीए णहच्छेयणयं पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणंतं वा साइज्जइ ॥३७॥ जे भिक्खू अविहीए कण्णसोहणयं पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणंतं वा साइज्जइ ॥ ३८ ॥ कठिन शब्दार्थ - अविहीए अविधि से - अविवेक पूर्वक, पच्चप्पिण - प्रत्यर्पित करता - लौटाता है।
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