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निशीथ सूत्र
कहा जाता है। प्रतिहार शब्द से तद्धित प्रक्रिया के अन्तर्गत प्रातिहारिक बनता है, जिसका अर्थ वापस लौटाये जाने योग्य वस्तु है। जैन परम्परा में यह शब्द विशेष रूप से प्रचलित है।
जैसा पहले विवेचन हुआ है, आवश्यक उपधि के अतिरिक्त साधु जो भी औपग्रहिक उपकरण आवश्यकतावश लेता है, वे प्रत्यर्पणीय या प्रातिहारिक कहे जाते हैं।
साधु की चर्या नियमानुवर्तिता युक्त होती है। वह 'यथावादी तथाकारी होता है, जैसा कहता है, ठीक वैसा ही करता है। जिस वस्तु को गृहस्थ से जिस कार्य के लिए लेता है, उसका ठीक उसी कार्य में उपयोग करता है। उसके अतिरिक्त अन्य कार्य में उपयोग करने से सत्य और अस्तेय महाव्रत में दोष आता है।
देने वाले को जब यह मालूम पड़ता है कि साधु ने उस द्वारा दी गई वस्तु का अपने कथन के विपरीत अन्य कार्य में उपयोग किया है तो उसके मन में साधुवृन्द के प्रति अविश्वास उत्पन्न होता है। ऐसा होना चतुर्विध धर्मसंघ के हित में बाधक है। .. .
यही कारण है कि उपर्युक्त सूत्रों में साधु द्वारा सूई, कतरणी, नखछेदनक एवं कर्णशोधनक की याचना करते हुए जिन कार्यों में उनके उपयोग की बात कही जाती है, उनसे भिन्न कार्यों में उनका उपयोग करने को दोषपूर्ण प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। लौटाने योग्य सूई आदि ग्रहण करने के समय किसी एक कार्य का निर्देश नहीं करके समुच्चय कार्य के लिए ग्रहण करना चाहिए।
अपने लिए याचित उपकरण अन्य को देने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू अप्पणो एक्कस्स अट्ठाए सूई जाइत्ता अण्णमण्णस्स अणुप्पदेइ अणुप्पदेंतं वा साइज्जइ ॥ ३१॥
जे भिक्खू अप्पणो एक्कस्स अट्ठाए पिप्पलयं जाइत्ता अण्णमण्णस्स अणुप्पदेइ अणुप्पदेंतं वा साइजइ॥ ३२॥
जे भिक्खू अप्पणो एक्कस्स अट्ठाए णहच्छेयणयं जाइत्ता अण्णमण्णस्स अणुप्पदेइ अणुप्पदेंतं वा साइज्जइ॥ ३३॥
जे भिक्ख अप्पणो एक्कस्स अट्ठाए कण्णसोहणयं जाइत्ता अण्णमण्णस्स अणुप्पदेइ अणुप्पदेंतं वा साइज्जइ॥ ३४॥
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