________________
एकोनविंश उद्देशक - पार्श्वस्थ सह वाचना आदान-प्रदान विषयक....
४१३
३१. जो भिक्षु कुशील को वाचना देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। ३२. जो भिक्षु कुशील से वाचना लेता है अथवा लेने वाले का अनुमोदन करता है। ३३. जो भिक्षु नित्यक को वाचना देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। ३४. जो भिक्षु नित्यक से वाचना लेता है अथवा लेने वाले का अनुमोदन करता है। ३५. जो भिक्षु संसक्त को वाचना देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। ३६. जो भिक्षु संसक्त से वाचना लेता है अथवा लेने वाले का अनुमोदन करता है। ऐसा करने वाले भिक्षु को लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
इस प्रकार उपर्युक्त ३६ सूत्रों में किए गए किसी भी प्रायश्चित्त स्थान का, तद्गत दोषों का सेवन करने वाले भिक्षु को उद्घातिक परिहार-तप रूप लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
इस प्रकार निशीथ अध्ययन (निशीथ सूत्र) में एकोनविंश उद्देशक परिसमाप्त हुआ।
विवेचन - इन सूत्रों में संयम के अपरिपालक, भिक्षु वेश युक्त तथा भिक्षु होते हुए भी अवसादं युक्त, कुत्सित - दूषित आचार सेवी, नित्यपिण्डभोजी, लौकिक आसक्ति युक्त जनों को वाचना देना, उनसे वाचना लेना प्रायश्चित्त योग्य बतलाया है। क्योंकि जो केवल वेश धारण करते हैं, संयम एवं व्रतमय आचार का पालन नहीं करते, जो श्रमण होते हुए भी ज्ञान, दर्शन और चारित्रमूलक त्याग तितिक्षामय विशुद्ध आचार युक्त धर्म के अनुसरण में अवसाद युक्त - उत्साह रहित होते हैं, जिनके क्रियाकलाप दूषित, सावधपूर्ण होते हैं, जो नित्यपिण्डभोजिता जैसे दोष का सेवन करते हैं, जिनमें भौतिक आसक्ति तथा लोकैषणा जैसी संयम परिपंथी मानसिकता विद्यमान रहती है उनके मन में ज्ञान के प्रति वास्तविक अभिरुचि नहीं होती। वे सैद्धान्तिक गूढ तत्त्वों को आत्मसात करने में असमर्थ रहते हैं। वे मानसिक चंचलता एवं अस्थिरतायुक्त होते हैं। इन अवगुणों के कारण वे वाचना देने और लेने की दृष्टि से पात्र, योग्य या अधिकारी नहीं होते। उनको वाचना देना निरर्थक है तथा उनसे वाचना ले कर उन्हें महत्त्व देना सर्वथा अनुपयुक्त एवं असंगत है। क्योंकि उनकी तत्त्वग्राहिणी, सत्-असत्-विवेकिनी प्रज्ञा कुण्ठित और मूर्च्छित रहती है। अत एव उनसे प्राप्त वाचना किसी भी दृष्टि से सार्थक नहीं होती।
॥ इति निशीथ सूत्र का एकोनविंश उद्देशक समाप्त॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org