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प्रथम उद्देशक - सूई आदि के परिष्करण का प्रायश्चित्त
भोजन आदि खाद्य पदार्थों को बिल्ली, चूहे आदि जीवों से बचाने के लिए उन्हें छींके पर लटकाने की प्रथा है।
ठहरने के स्थान आदि की अनुपयुक्तता में एवं मच्छर, डांस आदि के उपद्रव के निवारण करने में यवनिका - पर्दा तथा मसहरी आदि की भी आवश्यकता होती है।
ये.कार्य चातुर्मास आदि में आवश्यक तो होते हैं, किन्तु सावध कार्यों तथा आरम्भसमारम्भ का सर्वथा त्यागी जैन साधु कह कर ये नहीं करवा सकता। क्योंकि उससे संयम में दोष आता है, वह प्रायश्चित्त का भागी होता है।
संयमी साधु के लिए आवश्यकता की पूर्ति से अधिक महत्त्व संयम के परिपालन का है। वह ऐसा कोई कार्य नहीं करता, जो संयम के विरुद्ध हो। चाहे उसे कितनी ही कठिनाइयों का, बाधाओं का सामना क्यों न करना पड़े?
सूई आदि के परिष्करण का प्रायश्चित्त . जे भिक्खू सूईए उत्तरकरणं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेइ कारेंतं वा साइज्जइ॥१५॥
जे भिक्खू पिप्पलगस्स उत्तरकरणं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेइ कारेंतं वा साइज्जइ॥१६॥ .... जे भिक्खू णहच्छेयगस्स उत्तरकरणं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेइ.कारेंतं वा साइजइ॥१७॥
जे भिक्खू कण्णसोहणगस्स उत्तरकरणं अण्णउत्थिएण का गारथिएण वा कारेइ कारेंतं वा साइज्जइ॥ १८॥
कठिन शब्दार्थ - सूईए - सूई का, उत्तरकरणं - परिष्करण या तीक्ष्णतादि संपादन - तीक्ष्ण या तेज बनाना, पिप्पलगस्स - कर्तरिका - कतरणी का, णहच्छेयणगस्स - नखछेदनकनहरनी का, कण्णसोहणगस्स - कर्णशोधनक - कानकुचरणी का।
. भावार्थ - १५. जो साधु किसी अन्यतीर्थिक द्वारा या गृहस्थ द्वारा सूई का परिष्करण करवाता है - उसे तीक्ष्ण या तेज कराता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
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